सेहत की रखवाली-            

 इस ऋतु में ये नियम, तो गारण्टी : बीमारी नहीं!!                                                                                                        

आयुष ग्राम गतांक से आगे.....


उबटन- वसंत ऋतु में उबटन का प्रयोग करना चाहिए इससे शरीर के रोम कूप खुलते हैं और शरीर में संचित कफ जलकर शरीर की धातुओं को मजबूत करता है पर दुर्भाग्य है कि देश में अत्यन्त प्रचलित उबटन की यह परम्परा बिल्कुल मिट गयी है अब इसे पुन: घर-घर में जागृत करना चाहिए। 

धूमपान- औषधियों से निर्मित धूमवर्ती का सेवन शास्त्रीय विधान से करना चाहिए यह क्रिया भी जहाँ एक ओर हुये कफ दोष को संतुलित करती है वहीं पाचन क्रिया को भी दुरुस्त करती है। 

प्रकृति से हम जितना दूर जायेंगे अर्थात प्रकृति के नियमों का जितना अतिक्रमण करेंगे हम उतने ही असंतुष्ट, दु:खी, रोगी और आत्मबल हीन रहेंगे, जितना प्रकृति के नजदीक रहेंगे और प्रकृति के नियमों से बँधकर चलेंगे उतने ही स्वस्थ, सुखी, संतुष्ट रहेंगे। हम में सही निर्णय लेने की क्षमता बढ़ेगी और प्रेमोत्पादन होगा। थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करिये और अपनों को प्यार से कराइये फिर देखिए वैâसा सुधारात्मक परिवर्तन आता है। 

कवल धारण- शाङ्र्गधर संहिता १०/४ में कवल का विधान बताया गया है इसमें औषधियों का काढ़ा या कल्क को मुख में भरकर हिलाना होता है। वसंत ऋतु में नित्य अदरख, लौंग, बड़ी इलायची, दालचीनी और बबूल की छाल या त्रिफला का काढ़ा या कल्क बनाकर मुख में कुछ देर भरकर हिलाना चाहिए फिर थूक देना चाहिए। इससे कफ दोष संतुलित होता है, स्वर दोष मिटता है तथा पाचन प्रणाली पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। 

अंजन लगाना- चरक संहिता सूत्र ६/२४ प्रमाण देता है कि अंजन धारण भी कफ दोष को संतुलित करता है, अपने देश की चिकित्सा प्रणाली की वैज्ञानिकता की उच्च स्थिति की परख इससे हो जाती है कि अंजन भले ही आँखों में लगाया जाता हो पर उसका सूक्ष्म प्रभाव पूरे शरीर में होता है। 

आपको यह जानना चाहिए कि बढ़ते मोतियाबिन्द और दृष्टि बाधा का मूल कारण ऊध्र्वांग गत कफ दोष ही है। जब से फैशन और आधुनिकता के चलते अंजन लगाने की परिपाटी घटती गयी तो मोतियाबिन्द सहित अनेकों रोग बढ़ते जा रहे हैं। शास्त्रीय विधि से तैयार अंजनों का प्रयोग फिर से प्रचलित करना चाहिए। 

गुनगुने जल से स्नान- चरक कहते हैं- ‘सुखाम्बुना शौचविधि शीलयेत् कुसुमागमे।’ च.सू. ६/२४ कि वसंत ऋतु में गुनगुने जल से ही स्नान करना चाहिए। इससे कफ दोष का प्रकोप नहीं होता। 

जौ- गेंहूँ का भोजन- चिकित्साचार्य चरक भोजन में जौ और भारतीय प्राचीन गेंहूँ सेवन की बात कहते हैं। ये कफ विकार को संतुलित करते हैं और शरीर को अच्छा पोषण देते हैं। भाव प्रकाशकार कहते हैं-

गोधूमान्बहुशालिभेदसहितान् मुद्गान् यवान्षाष्टिकान् ..........

रुक्षं कटूष्णं लघु।। ५/३४६।।

शालि और साठिया चावल, मूँग की दाल का भी सेवन कर सकते हैं। 

इसके अलावा वसंत ऋतु में रुक्ष, कड़वे, पचने में हल्के पदार्थों का सेवन करना है।  इसमें करेला (Momordia charantia) को भूनकर या बिना तले सब्जी के रूप में सेवन करना चाहिए। यह रुक्ष भी है, विपाक में कटु और वीर्य में उष्ण भी है। भगवान् ने इसीलिए इसका उत्पादन इस ऋतु में किया है इसके अलावा परवल, बथुआ, तुरई, लौकी, कच्चे पपीते की सब्जी में प्रयोग करना चाहिए। 

वाग्भट ने लिखा कि वसंत ऋतु में -

शृंगवेराम्बु साराम्बु मध्वाम्बु जलदाम्बु च। अ.हृ.३/२३।। अदरख का काढ़ा, अदरख का पानी, ताजे पानी में असली मधु घोलकर नागरमोथा का पानी या काढ़ा इस ऋतु में सेवन करना चाहिए। इससे पाचन ठीक रहता है, स्रोतोरोध मिटता है, रक्तादि धातुयें पुष्ट होती हैं, जोड़ों का दर्द सूजन मिटाता है। 

आधुनिक शोधों से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि अदरख का सही प्रयोग रक्तवर्धन करता है। 

गरम पानी- इस ऋतु में गरम पानी का ही सेवन करना चाहिए यह गरम भी होता है और लघु यानी पचने में हल्का भी। 

इस ऋतु क्या न करें?

मिष्टमम्लं दधि स्निग्धं दिवास्वप्नं च दुर्जरम्।

अवश्यायमपि प्राज्ञो वसन्ते परिवर्जयेत्।। 

भा.प्र. ५/३४७।।

मिठाइयाँ- इस ऋतु में मिठाइयों का सेवन अल्पकालीन और चिरकालीन बीमारियों को बुलाना है। इस समय कफ दोष वैसे ही बढ़ा रहता है, पाचन प्रणाली की अस्त व्यस्तता का क्रम चलता रहता है। किसी भी समय सर्दी-जुकाम, खाँसी, सूजन, साइनोसाइटिस, कोलाइटिस का आक्रमण हो सकता है। 

खटाई या खट्टी वस्तुयें- अम्ल  रस कफ को बढ़ाता है, इसलिए आँवला, संतरा को छोड़कर किसी अन्य अम्ल रस का सेवन नहीं करना चाहिए। इनमें भी आँवला या संतरा का जूस नहीं, अचार नहीं। 

दही- आधुनिक चिकित्सा प्रणाली में तो दही में प्रो बायोटिक या बै. लैक्टिक एसिड को ध्यान में रखकर हर डाइट चार्ट में शामिल किया जा रहा है। जबकि चरक सुश्रुत के प्राचीन भारत में दही कभी भी नित्य आहार द्रव्य नहीं था। 

इस ऋतु में दही का सेवन पूरी तरह से निषेध है। दही सेवन स्रोतोरोध, कफ वृद्धि, मेटोबोलेज्मि डिसऑर्डर वृद्धि, लीवर पैâटी, गठिया, यूरिक एसिड, सीआरपी, वृद्धि जैसी बीमारियाँ ला सकता है।

चिकने पदार्थ- आयुर्वेद ने चिकने और चिकनाई से बने पदार्थों के सेवन पर भी इस ऋतु में सेवन पर रोक लगायी है। इससे वे सारी समस्यायें हो सकती हैं जो मिठाई और दही सेवन से हो सकती हैं।

दिन में सोना- दिन में सोने से इस ऋतु में कफ के प्रकोप की पूरी सम्भावना रहती है। सोने से शरीर की गतिविधियाँ शिथिल हो जाती हैं जिससे कफ दोष को बढ़ने और स्रवित होने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है। उधर प्रकृति में ऋतुजन्य कफ दोष बढ़ा रहता है जिसका दुष्परिणाम यह मिलता है कि शरीर में कफ दोष बढ़कर अनेकों रोग पैदा कर देता है। 

दुर्जर भोजन- कठिनाई से पचने वाले आहार के सेवन को पूरी तरह से त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि ऋतुजन्य कारण से प्रकृति और शरीर दोनों में अग्नि की स्थिति कमजोर रहती है ऐसे में यदि गरिष्ठ और कठिनाई से पचने वाले आहार का सेवन किया जाएगा तो पाचकाग्नि और आहत होती है जिसका परिणाम यह होता है कि रोग और दोष पैदा होने वाले ‘आम रस’ का निर्माण शरीर में शुरू हो जाता है जो चिरकालीन और अल्पकालीन रोगों को जन्म दे सकता है और जो वसंत ऋतु आनन्द की ऋतु है, अल्हाद की ऋतु है, प्रसन्नता की ऋतु है, उत्साह की ऋतु है वह कष्ट में और खर्चीली परिस्थितियों में, बिस्तर, अस्पताल और दवाइयों में बीतने लगती है। 

अंत में एक बात और लिख दें कि यह ऋतु कफ दोष के बढ़ने की है और कफ दोष ‘तमोगुण’ से सम्बन्ध रखता है। ‘तमोगुण’ अप्रकाश (अविवेक) अपने कत्र्तव्य कर्मों में अप्रवृत्ति व्यर्थ और जिनकी जीवन उत्थान में कोई भूमिका नहीं है ऐसी चेष्टायें, निद्रा आदि अंत:करण की मोहनी प्रवृत्ति लाता है। जैसा कि भगवान् स्वयं कहते हैं- 

अप्रकाशोऽप्रवृत्तिश्च प्रमादो मोह एव च। तमस्येतानि जायन्ते...।। गीता १४/१३

भगवान् यह भी कहते हैं कि- अधो गच्छन्ति तामस:।। १४/१८।। जो तमोगुण के लपेट में आ जाते हैं वे भूल जायें कि उनका उत्थान होगा, वे पतन में ही जायेंगे। इसलिए सावधान रहें। इनसे मुक्त रहने का भगवान् बहुत ही सहज उपाय बताते हैं कि- 

मां योऽव्यभिचारेण भक्ति योगेन सेवते। स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।। १४/२६।। अर्थात् जो व्यक्ति दृढ़ निश्चयी, भटकाव रहित, भक्ति योग द्वारा मुझे निरन्तर भजता है उनका ये ‘गुण’ कुछ नहीं बिगाड़ पाते, वह मस्त और आनन्दित रहता है। तो बसंत ऋतु में स्वस्थ रहने के लिए भगवान् का निरन्तर और खूब भजन भी करना चाहिए इससे आपको तमोगुण प्रभावित नहीं करेगा और आनन्द तथा उत्थान होगा ही। यह हम नहीं कर रहे भगवान् कह रहे हैं।

सर्व प्रजानां हितकाम्ययेदम्

(चिकित्सा पल्लव)

 मासिक पत्रिका          

पृष्ठ 7-9

अंक अप्रैल 2024

आयुष ग्राम कार्यालय आयुष ग्राम (ट्रस्ट) परिसर सूरजकुण्ड रोड (आयुष ग्राम मार्ग) चित्रकूट धाम 210205(उ०प्र०)

प्रधान सम्पादक

आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी

घर बैठे रजिस्टर्ड डाक से पत्रिका प्राप्त करने हेतु।

450/- वार्षिक शुल्क रु. (पंजीकृत डाक खर्च सहित)

_______

Email - ayushgramtrust@gmail.com

Facebook- Ayushgram Chikitsalaya chitrakoot dham

Instagram- Ayushgram Chikitsalaya chitrakoot dham

YouTube- Ayushgram Chikitsalaya chitrakoot dham

Web- ayushgram.org

Mob. NO. 9919527646, 8601209999

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ