घोर कष्ट दायक खूनी बवासीर (रक्तार्श) ग्रस्त, बड़े अस्पतालों से लौटे रुग्ण की सफल चिकित्सा!!

 घोर कष्ट दायक खूनी बवासीर (रक्तार्श) ग्रस्त, बड़े अस्पतालों से लौटे रुग्ण की सफल चिकित्सा!!

आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूट के संस्थापक अध्यक्ष और सीनियर आयुर्वेद फिजीशियन डॉ. वाजपेयी जी कहते हैं कि आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूट बिना सरकारी/गैरसरकारी सहायता के अपने स्वयं के संसाधनों के बलबूते पर इतने अच्छे परिणाम और स्वास्थ्य सेवायें प्रदान कर रहा है। सस्ता भोजनसस्ता बेड चार्जसस्ती दवायेंसस्ता नर्सिंग चार्ज। डॉ. वाजपेयी आगे यह भी कहते हैं कि यदि सरकार हमें उचित संसाधनप्रोत्साहनआश्रय और व्यवस्था उपलब्ध कराये तो देश के अनगिनत हार्ट रोगियों को बाईपास सर्जरी/स्टेंट से तथा गुर्दे के रोगियों को डायलेसिस से बचाया जा सकता है और उन्हें आरोग्य के मुकाम में खड़ा किया जा सकता है।’’
आयुष के ऐसे हैं प्रभाव!!
हम यह नहीं कहते कि हम किडनीहार्ट या रीढ़ (स्पॉण्डिलाइटिस)चर्म रोगियों को शत प्रतिशत स्वस्थ कर देते हैं पर यह तो अवश्य कह सकते हैं कि हम इन रोगों में अंग्रेजी चिकित्सा से अच्छे और औसत से अधिक अच्छे परिणाम देते हैं। बस! रोगी इतना देर करके न आये। आज अंग्रेजी इलाज की स्थिति यह है कि पहले एक गोली से इलाज शुरू होता है धीरे-धीरे वह हार्टकिडनीलिवर का रोगी बन जाता है और फिरकभी भी बन्द न होने वाली दवाओं का सिलसिला चलने लगता है। जबकि आयुष चिकित्सा में दवायें धीरे-धीरे घटते-घटते बिल्कुल बन्द हो जाती हैं। एक नहींसैकड़ों हार्ट रोगीसैकड़ों किडनी रोगी इसके प्रमाण हैं जिनका डाक्यूमेंट्री रिकॉर्ड आयुष ग्राम चित्रकूट में रखा जाता है। ऐसे में आप सभी का पावन कर्तव्य बनता है कि पीड़ित मानव का सही मार्गदर्शन करें और उन तक जानकारी पहुँचायेंशायद वे भी समय से आयुष चिकित्सा में पहुँचकर आपके मार्गदर्शन से इनकी तरह जीवन लाभ पा सकें।

डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी
संस्थाध्यक्षआयुष ग्राम (ट्रस्ट) चित्रकूटधाम (उ.प्र.) २१०२०५
Evidence based treatment (वैज्ञानिक प्रमाण युक्त चिकित्सा)

                               
                                      श्री राजेश द्विवेदी जी 

               दोष दूष्यनिदानं विपरीतं हितं ध्रुवम्।
               उक्तानुक्तान् गदान् सर्वान् सम्यग्युक्तं नियच्छति।।

                                                                                                    महर्षि चरक चि.  ३०/२९२
अर्थात 

रोगी के दोष, रसरक्तादि दूष्य और रोग के मूल कारण को समझकर इनके विपरीत औषध प्रयोग करना ही हितकर होता है, इसी वैज्ञानिक और हितकर सिद्धान्त के आधार पर ही शास्त्र में वर्णित तथा अनुक्त व्याधियों की चिकित्सा में सफलता मिलती है। अन्यथा भटकाव बना रहता है। 

चूँकि एलोपैथ में केवल लक्षण आधारित और मशीनी जाँच आधारित चिकित्सा चलती रहती है परिणाम यह कि मूल रोग तो मिटता नहीं बल्कि अन्य नये रोग जरूर उत्पन्न होने लगते हैं। 

७ अगस्त २०२१ को बाँदा जनपद के मऊ (रिसौरा) के प्रतिष्ठित, धनी, मानी, धर्मात्मा और उदार परिवार के युवक श्री राजेश द्विवेदी चिकित्सा हेतु आयुष ग्राम चिकित्सालय, चित्रकूटधाम में लाये गये। 

केस हिस्ट्री के समय उन्होंने बताया कि समस्या तो कई वर्ष पुरानी है पर लगभग पिछले ढाई महीने से मलमार्ग से रक्तस्राव, खुजली, जलन और दर्द से बहुत परेशान हैं, छोटे बड़े एलोपैथ डॉक्टरों की शरण लेते रहे पर लाभ नहीं हुआ। 


   पहले अतिसार (पतले दस्त) हुआ उसका अंग्रेजी इलाज कराया, फिर अधोमार्ग से रक्त आने लगा स्थानीय एलोपैथिक अस्पतालों कुछ क्षारसूत्र कत्र्ताओं को दिखाया। 

चूँकि श्री राजेश द्विवेदी अर्थ सम्पन्न और साधन सम्पन्न व्यक्ति हैं अत: वे लखनऊ मेदान्ता चले गये। वहाँ भी कुछ दिन भर्ती रहे पर २-३ दिन ही खून, दर्द और जलन कम हुयी और फिर वही स्थिति बन गयी। अत: वहाँ से भी लौट आये। 

 ३० जून २०२१ को आयुष ग्राम (ट्रस्ट) चिकित्सा चित्रकूट आये, रजिस्ट्रेशन हुआ।

श्री द्धिवेदी  जी  राजनीति और बालू के कार्य में सक्रिय भूमिका रखते हैं अत: कई सालों से भागमभाग जिन्दगी, न खाने का न सोने का समय और न खाने और न सोने की सही नियमावली, न ही समय पर शौच जाने की न मूत्र त्याग की स्थिति। इस प्रकार पूरा जीवन अस्त-व्यस्त।

        विश्व के महान् चिकित्सा वैज्ञानिक कहते हैं कि इस तरह की अस्त-व्यस्त जीवनशैली और खान-पान से   ‘प्रकुपितो वायुरपानस्तं मलमुपचितमधोगमासाद्य गुदावलिष्वाधत्ते, ततस्तास्वर्शांसि प्रादुर्भवन्ति।।’ च.चि. १४/९।।से आँतों में मल का संचय होता जाता है, कभी कब्ज, कभी दस्त तो (विष्टम्भोऽन्नस्य दौर्बल्यं कुक्षेराटोप एव च। काश्र्यमुद्गार बाहुल्यं सक्थिसायोऽल्पविट्कता। ग्रहणीदोषपाण्डूवर्तेराशज्र।। च.चि. १४/२२।।) खाए-पिये आहार का सही ढंग से पाचन न होना, पेट पूâलना, शरीर में दुर्बलता, पेट में गुड़गुड़ाहट, डकार अधिक आना, पैरों में मन्द-मन्द पीड़ा, मल की अल्पप्रवृत्ति होने लगती है। रोगी की मानसिकता ऐसी हो जाती है कि लगता है तमाम तरह के रोग होने वाले हैं या हो रहे हैं। 

इस प्रकार गुदामार्ग से निकलने वाली और पक्वाशय में रहने वाली वायु, आँतों में संचित मल में जाकर गुदा के वलियों ( Anulus) पर ठोकर मारती है, ऐसी क्रिया लम्बे समय तक चलती रहती है। रोगी सही निदान और चिकित्सा में पहुँच नहीं पाता, कभी कब्ज की, कभी दस्त की तो कभी भोजन न पचने की तो कभी गैस की दवा खाता रहता है परिणाम यह होता है कि कठिन व्याधि बवासीर से ग्रस्त हो जाता है। श्री द्विवेदी जी के साथ भी यही हुआ।

रोग जटिल था और उधर रोगी भी सुकुमार तथा साधन सम्पन्न। 

लगातार दर्द की अंग्रेजी दवा खा रहे थे। 

उन्हें बार-बार यह सन्देह हो रहा था कि कहीं कोई अन्य बीमारी न हो जबकि सच बात तो यह है कि सही निदान और सही चिकित्सा न हो पाने के कारण अभी तक सफलता नहीं मिली थी। 

दरअसल इस रोग का सम्पूर्ण उपचार एलोपैथ में है भी नहीं। श्री द्विवेदी जी को कई जगह से क्षारसूत्र/ऑपरेशन की सलाह दी गयी थी पर वे कहते थे कि न तो क्षारसूत्र कराना न ऑपरेशन। यद्यपि उन्हें कष्ट तो बहुत था पर खाया-पिया और सुडौल शरीर इसलिए वे सहन कर रहे थे पर जब शौच में ‘रक्तस्राव’ देखते तो विचलित हो जाते। 

हमने आश्वासन दिया कि आप शत प्रतिशत ठीक होंगे वह भी बिना ऑपरेशन और बिना क्षारसूत्र के। 

दरअसल बवासीर को अर्श इसीलिए तो कहते हैं कि- ‘‘अरिवत् प्राणान् शृणातीति अर्श:।’’ यह रोग शत्रु की तरह प्राणों को कष्ट देता है। महर्षि वाग्भट तो इस रोग के सम्बन्ध में दो कदम बढ़कर स्पष्टीकरण देते हैं-

               अरिवत् प्राणिनो मांसकीलका विशसन्ति यत:।
               अर्शांसि तस्मादुच्यन्ते गुदमार्गनिरोधत:।।

                                                                                                        अ.हृ.नि. ७/१।।

जो रोग, गुदामार्ग में मांस, कीलक उत्पन्न करके इस शरीर को शत्रु के समान नष्ट कर देता है उसे ‘अर्श’ कहते हैं। 

इसी क्रम में इस रोग के सम्बन्ध में महर्षि चरक के अनुसार एक तथ्य और समझ लेना चाहिए-

              पञ्चात्मा मारुत: पित्तं कफो गुदवलित्रयम्।
              सर्व एव प्रकुप्यन्ति गुदजानां समुद्भवे।

              तस्मादर्शां दु:खानि बहु व्याधिकरापि च। 
              सर्वदेहोपतापीनि प्राय: कृच्छ्रतमानि च।।

                                                                              च.चि. १४/२४-२५।।

अर्श रोग में प्राण, उदान, समान, व्यान और अपान वायु तथा पाचक, रञ्जक, भ्राजक, आलोचक, साधक पित्त तथा तर्पक, क्लेदक, श्लेषक, अवलम्बक, बोधक ये सभी गुदा की तीनों वलियों में कुपित होते हैं। अर्श रोग बहुत की कष्टदायक तथा कई रोग उत्पन्न कर देता है और कठिनाई से ठीक होता है। 

चिकित्सा क्रम-

अब उनका चिकित्सा क्रम इस प्रकार विहित किया गया। चिकित्सा में सफलता का आधारभूत महर्षि चरक के उस सूत्र पर अवश्य ध्यान देना चाहिए जिसे हमने लेख के प्रारम्भ में लिखा है।

दोष, दूष्य और निदान के विपरीत जो औषध होता है वह निश्चय ही लाभप्रद है। ठीक होने योग्य रोगों में उचित रूप से प्रयोग की गयी चिकित्सा ही लाभकारी होती है। 

पिप्पल्यादि तैल की मात्रा बस्ति एक दिन के अन्तर से समय-समय पर पिच्छाबस्ति भी।

यह आवश्यक इसलिए है कि ‘गुदात् पक्वाशयस्थांश्च हन्त्याशु दत्तमौषधम्।। 

                                                                                                                             च.चि. २०/२९४।।

जिन रोगों में पक्वाशय की भूमिका हो उनमें गुदा मार्ग से दी गयी औषधियाँ शीघ्र लाभ पहुँचाती थी। 

औषध व्यवस्था पत्र-

१. धत्तूरादि चूर्ण २-२ ग्राम दिन में २ बार।

२. अर्शोघ्नी वटी २५० मि.ग्रा., कुटज घनवटी २५० मि.ग्रा., नागकेशर चूर्ण १ ग्राम, बोलबद्धरस २५० मि.ग्रा. और चतुर्मुख रस १२५ मि.ग्राम। सभी को घोंटकर १ मात्रा। १²२ सुखोष्ण जल से।

३. षडंगपानीयम् २०-२० मि.ली. दिन में ३-४ बार। 

४. चन्द्रप्रभावटी २ गोली रात में सोते समय। 

श्री द्विवेदी जी को जैसे ही लाभ प्रारम्भ हुआ तो अचानक राजनैतिक कार्य से ४-५ दिन बाद जाना पड़ा और ४-५ दिन बाद फिर आ गये और उन्हें फिर भर्ती किया गया। चिकित्सा क्रम आगे बढ़ा। 

अब उन्हें लाभ होने लगा रक्तस्राव और दर्द में बहुत कमी आयी पर रक्तस्राव की अवधि, मात्रा में भी कमी आयी, पर दर्द हो जाता था क्योंकि रोग पुराना था और एलोपैथ से और जटिल हो गया था। 

चिकित्सा से संतुष्ट होकर श्री राजेश द्विवेदी (पूर्व प्रधान) जी ने ‘आयुष ग्राम’ परिसर में एकादश सहस्र पार्थिव शिवलिंग निर्माण, भण्डारा किया और आयुष ग्राम गुरुकुलम् में १० अच्छे शंख और चारों वेदों की स्थापना कराकर पुण्यमय ऐतिहासिक कार्य किया जिसकी सभी ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। 

एक दिन उन्हें कुछ दर्द और रक्तस्राव अधिक हुआ तो हमने दिनांक- ३१ जुलाई २०२१ को नया चिकित्सा व्यवस्था पत्र विहित किया-

१. नित्योदित रस २५० मि.ग्रा., जातीफलादि वटी २५० मि.ग्रा., शंख भस्म ५०० मि.ग्रा., मुक्ता भस्म ६५ मि.ग्रा. और रौप्य भस्म ६५ मि.ग्रा. सभी घोंटकर १²२ मधु से। 

२. उशीरासव २० मि.ली., षडंगपानीय १० मि.ली. मिलाकर बराबर जल के अनुपान से दिन में २ बार। 

३. कृष्णतिल ५ ग्राम, गो नवनीत १० ग्राम मिलाकर सुबह खाली पेट।

४. दधिसार का सेवन पथ्य में १ बार मध्यान्ह में। 

इससे लाभ तो होने लगा पर हमें आमविष, विबन्ध पित्तवृद्धि और अल्पाग्नि की स्थिति देखकर अविपत्तियोग (अ.हृ. विरेचनाध्याय का) ५-५ ग्राम खाना के तुरन्त पूर्व गरम जल से सेवन हेतु जोड़ दिया।

शास्त्र स्पष्ट कहता है कि- ‘‘तापे पाष्ड्वामयेऽल्पेऽग्नौ शास्ता: सर्वविशेषु च।।’’ यह ताप (जलन), पाण्डु, मन्दाग्नि और सभी प्रकार के विष विकारों में उपयुक्त है। 

इस चिकित्सा से एक दिन रात ८ बजे आँतों में जमा आमविष और मलानुबन्ध टूटकर आँत की श्लेष्मिक कला और मस्सों से टकराते हुये बाहर निकला तो प्राणों को घोर कष्टकारी दर्द, जलन, शूल हुआ। रोगी के परिजन घबरा गये। 

आयुष ग्राम चिकित्सालय के डॉ. त्रिपाठी जी ने इस दर्द को ‘मैनेज’ किया। हमने उन्हें सांत्वना दी कि बस! आज अंतिक्त कष्ट था। 

हुआ वही जो हमने कहा था। इस दिन से दिन प्रतिदिन सुधार होने लगा, दिनांक- ४ अगस्त २०२१ को उन्हें डिस्चार्ज की सलाह दी गयी। 

श्री राजेश द्विवेदी जी पूर्ण स्वस्थ होकर अपने कारोबार में लग गये हैं। बवासीर रोगी को यह समझ लेना चाहिए कि-

                                 त्रयोविकारा: प्रायेण ये परस्परहेतव:।
                                 अर्शासि चातिसारश्च ग्रहणीदोष एव च।।
                                 एषामग्निबले हीने वृद्धिर्वृद्धे परिक्षय:।
                                तस्मादाग्निबलं रक्ष्यमेषु त्रिषु विशेषत:।।

                                                                                                 च.चि. १४/२४४-२४५

अर्श (बवासीर), अतिसार और ग्रहणी ये तीनों रोग प्राय: एक दूसरे रोग के कारण स्वरुप हैं यदि बवासीर है तो अतिसार (अत्यधिक पतले दस्त) और ग्रहणी (एक प्रकार की पाचनतंत्र की व्याधि) बनी रहती है, यदि ग्रहणी विकार और अतिसार है तो अर्श (बवासीर) हो सकता है। इन रोगों में जब रोग प्रतिरोधक क्षमता, पाचकाग्नि आदि कमजोर रहती है तो रोग बढ़ जाता है और जब रोग प्रतिरोधक क्षमता पाचकाग्नि आदि बढ़ जाती है रोग का बल घट जाता है इसलिए इन रोगों में पाचकाग्नि और रोगप्रतिरोधक क्षमता की रक्षा अवश्य करनी चाहिए। इसके लिए-

                                    व्यत्यासान्मधुराम्लानि शीतोष्णानि च योजयेत्।
                                      नित्यमग्निबलापेक्षी जयत्यर्श: कृतान् गदान्।।

                                                                                                              च.चि. १४/२४५।।

रोगी का अग्निबल बढ़ाने की इच्छा से चिकित्सक को चाहिए कि रोगी को कभी मधुर रस प्रधान तो कभी अम्लरस पदार्थ खाने को दें तो कभी उष्ण पदार्थ तो कभी शीतल पदार्थ प्रयोग करावें। इस आहार क्रम से अर्श (बवासीर) रोग को जीता जा सकता है। 

आज कृष्ण जन्माष्टमी के दिन हमने आयुर्वेद जगत और सर्व सामान्य जानकारी के लिए इस लेख को लिखकर प्रस्तुत किया। आशा है कि आप सभी लाभ उठायेंगे। 

 डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी
डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी एक प्रख्यात आयुर्वेद विशेषज्ञ हैं। शास्त्रीय चिकित्सा के पीयूष पाणि चिकित्सक और हार्ट, किडनी, शिरोरोग (त्रिमर्म), रीढ़ की चिकित्सा के महान आचार्य जो विगड़े से विगड़े हार्ट, रीढ़, किडनी, शिरोरोगों को शास्त्रीय चिकित्सा से सम्हाल लेते हैं । आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूटधाम, दिव्य चिकित्सा भवन, आयुष ग्राम मासिक, चिकित्सा पल्लव और अनेकों संस्थाओं के संस्थापक ।

इनके शिष्यों, छात्र, छात्राओं की लम्बी सूची है । आपकी चिकित्सा व्यवस्था को देश के आयुष चिकित्सक अनुसरण करते हैं ।
                


 (सुपर स्पेशलिटी आयुर्वेद हॉस्पिटल


 आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूट द्वारा संचालित

   मोब.न. 9919527646, 8601209999
 website: www.ayushgram.org



  डॉ.मदन गोपाल वाजपेयी         आयुर्वेदाचार्यपी.जी. इन पंचकर्मा (V.M.U.) एन.डी.साहित्यायुर्वेदरत्न,विद्यावारिधि (आयुर्वेद)एम.ए.(दर्शन),एम.ए.(संस्कृत), एल-एल.बी. (B.U.)
 प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव और आयुष ग्राम मासिक
पूर्व उपा. भारतीय चिकित्सा परिषद
उत्तर प्रदेश शासन


 डॉ.अर्चना वाजपेयी,(असि.प्रोफेसर)                      
                                       एम.डी.(मेडि.-आयु.)                        
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