होली पर्व: मनचाही संताने जनने का देता मार्ग!!
होली हुड़दंग का नहीं, अमर्यादा का नहीं बल्कि शालीनता, शिष्टता, सभ्यता का महापर्व है, यह आत्म निर्माण का ही नहीं ईश्वर प्राप्ति का पर्व भी है।
यदि हम इस पर्व के मूल पर सही चिंतन करें फिर उसे व्यवहार में लायें तो बहुत बड़ा लाभ अर्जित कर सकते हैं। होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला भारतीय एवं नेपाली लोगों का यह प्रसिद्ध त्योहार जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है।
हम सभी को पता है कि हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद जो महान् भगवद्भक्त, लोक हितैषी, एक-एक प्राणी में ईश्वर को देखने वाला था, उसका पिता ही उसकी जान का शत्रु बन गया। उसे अनेकों जघन्य कष्ट दिए, अनेकों प्रकार के मानक उपाय करने के बावजूद भी हिरण्यकश्यप भगवद्भक्त, नीतिमान् प्रह्लाद का जब बाल बांका नहीं कर पाया तो उसने अपनी बहन होलिका या होली को याद किया, होलिका को आदेश देता है कि तुम प्रह्लाद को गोदी में लेकर अग्नि में बैठ जाओ तो यह जल जाएगा और तुम बच जाओगी।
होलिका को तो आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। इसलिए होलिका ने ऐसा ही किया किन्तु इस बार कुछ अलग ही हुआ कि आग ने होलिका को भस्म कर दिया और भक्त प्रह्लाद का कुछ नहीं बिगड़ा। वह इसीलिए कि-
जो अपराधु भगत कर करई।
राम दोष पावक सो जरई।।
रामचरित मानस २/२१८/३।।
अर्थात् जो कोई भगवान् के भक्त का अपराध करता है वह भगवान् राम की क्रोध रूपी अग्नि से जल जाता है। भगवान् अपने प्रति हुए अपराध को तो क्षमा कर देते हैं पर यदि भक्त के प्रति अपराध हुआ तो उसे क्षमा नहीं करते पर सच्ची भक्ति होनी चाहिए।
इस आर्यावर्त में महर्षि कश्यप की पत्नी दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप और होलिका का जन्म हुआ था। किन्तु हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप तो महान् आततायी, अत्याचारी, व्यभिचारी, जीवनभक्षी, लुटेरे, अन्यायी के रूप में उभरे।
हिरण्याक्ष तो वाराह भगवान् के द्वारा मारा गया, हिरण्यकश्यप का बेटा प्रह्लाद अपने पिता के अत्याचारों और गतिविधियों का न केवल विरोध करता था बल्कि पिता को नीतिपूर्ण आचरण करने के लिए समझाता भी था, जनता-जनार्दन का हित करता था और अपने राज्य के बाल समाज को भी सात्विक संस्कार देता था। इसीलिए पिता हिरण्यकश्यप उसे शत्रु मान बैठा।
आखिर एक महान् ऋषि कश्यप जो पूरे ब्रह्माण्ड के लिए वन्दनीय, पूजनीय, आदरणीय थे, जिनकी चरण रज के लिए लोग लालायित रहते थे, फिर इस ऋषि के यहाँ हिरण्यकश्यप जैसे आततायी, अत्याचारी का जन्म कैसे हो गया? केवल माता दिति की दुर्भावना, अपवित्रता, कामुकता, अमर्यादा, अश्लीलता, अनीति और गलती के कारण हुआ।
शास्त्र बताते हैं कि महर्षि कश्यप संध्या के समय जिस समय संध्योपासन, यज्ञ और ईश्वर में ध्यानस्थ थे उसी समय दिति का विवेक नष्ट हुआ वह पति परायण न होकर कश्यप से गर्भाधारण की माँग करने लगी। महर्षि कश्यप ने समझाया कि अरे! सायं कालीन और प्रात: कालीन संध्या के समय को ईश्वराराधना में लगाना चाहिए, इस समय गर्भाधान से राक्षस, अत्याचारी, अन्यायी, उद्दण्ड, अमर्यादित मन:स्थिति और आचरण वाली संतान होती है। किन्तु नारि हठ के आगे कश्यप जी को अनमने से गर्भाधान करना पड़ा जिसका परिणाम यह हुआ कि जन-जन कि लिए नहीं बल्कि समूचे राष्ट्र, समूचे ब्रह्माण्ड के लिए संकट रूप संताने उत्पन्न हुयीं जिनके लिए स्वर्ण, धन, सम्पत्ति, भौतिक सुख, भौतिकता ही सब कुछ था चाहे जैसा अत्याचार करना पड़े जिनकी आँखों में ही स्वर्ण बसता था। तो समाज ने इनका नाम दे दिया हिरण्याक्ष, हिरण्यकश्यप।
इसीलिए वैदिक चिकित्सा आयुर्वेद में गर्भाधान को बहुत ही सावधानी, संवेदनशीलता, विधि-विधान से करने का नियम उल्लिखित किया गया और इसे संस्कार की श्रेणी में रखा गया। संस्कार इसलिए नाम दिया गया कि इसके द्वारा मनचाही संतान उत्पन्न कर राष्ट्र को सौंपी जा सकती है।
प्रकृति की ऐसी व्यवस्था है कि वह सदैव संतुलन करती रहती है, गीता में भगवान् ने अपनी आठ प्रकृतियों का उल्लेख किया है, आचार्य चरक इन्हें कारण द्रव्य कहा है।
जब हिरण्यकश्यप के अत्याचारों से प्रकृति और मानव सभ्यता कराह उठी तो महर्षि कश्यप के तप, त्याग, भावना का परिणाम देने के लिए प्रकृति ने एक हिरण्यकश्यप जैसे आततायी से प्रह्लाद जैसे अजात शत्रु, महान् लोकोपकारी को उत्पन्न कर दिया। क्योंकि हिरण्यकश्यप की पत्नी कयाधु देवर्षि नारद जी के संरक्षण, शिक्षा और आचरण में तब रही जब प्रह्लाद गर्भ में थे।
प्रह्लाद का अर्थ ही होता है, संसार को विशेष (अल्हाद) आनन्द देने वाला।
शास्त्र साक्षी है कि माता कयाधु उत्तम संतान प्राप्ति की भावना से भक्ति और प्रेम पूर्वक नारद जी की सेवा करती थी उधर नारद जी भी गर्भस्थ जीव के उत्कृष्ट होने का उद्देश्य बनाकर माँ कयाधु को भागवत धर्म और विशुद्ध ज्ञान बताते थे। इस प्रसंग में शास्त्र के शब्द पढ़ने योग्य हैं-
ऋषिं पर्यचरत् तत्र भक्त्या परमया सती।
अन्तर्वत्नी स्वगर्भस्य क्षेमायेच्छा प्रसूतये।।
ऋषि: कारुणिकास्तस्या: प्रदादुभयमीश्वर:।
धर्मस्य तत्त्वं ज्ञानं च मामुप्युद्दिश्य निर्मलम्।।
श्रीमद्भागवत ७/७/१४-१५
आज भी यदि ऐसे ऋषियों, आचार्यों, साधकों की प्रेममयी भक्ति माताओं द्वारा की जाय तो आततायी और राक्षस पुरुषों से भी श्रेष्ठ, लोक कल्याणकारी, उत्कृष्ट, आत्मोद्धारक, परोपकारी, तेजस्वी संतानें हो सकती हैं। इसीलिए भगवान् राम ने भी लव-कुश के गर्भकाल में माँ सीता जी को तत्कालीन महर्षि वाल्मीकि जी के यहाँ छोड़ा था।
आज जिस प्रकार बालकों की उग्रता, उच्छृंखलता, उद्दण्डता देखने को मिल रही है तो प्रत्येक विचारवान् को ठेस पहुँचती है। यदि गर्भावस्था में माता को शारीरिक, मानसिक प्रसन्नता, दृढ़ता, विशिष्टता और अध्यात्मिकता मिले तो निश्चित् रूप से जन्मने के उपरान्त वह बालक आज्ञाकारी, सद्गुणी और अनुशासित रहेगा। यदि कुसंग न मिल जाय।
गर्भावस्था में माताओं को ऐसे जीवंत, तप:पूत आश्रमों में समय देना चाहिए, निवास करना चाहिए जहाँ साधना, तप, ज्ञान, भक्ति और श्रम का वातावरण प्राप्त हो। पर आज तो ऐसे आश्रमों का अभाव हो गया है, यदि आश्रम हैं भी तो वहाँ दैवी वातावरण नहीं है। क्या कहें, आश्रम के अधिष्ठता स्वयं सांसारिक चर्चाओं एवं प्रवृत्तियों में उलझे हुये रहते हैं वैसे भी इस युग में नारियों को किसी आश्रम में न तो अकेले जाना चाहिए न रहना ही चाहिए। पर गर्भावस्था में शास्त्र पठन-पाठन, मंत्र जप, भगवद्चर्चा, भगवद्प्राप्ति के प्रयास, गुरु उपदेश गर्भावस्था शिशु को उद्देश्य करके करना ही चाहिए।
होलिका दहन की शुभकामनाएं
सर्व प्रजानां हितकाम्ययेदम्
आयुष ग्राम(चिकित्सा पल्लव)
अंक मार्च 2024
आयुष ग्राम कार्यालय आयुष ग्राम (ट्रस्ट) परिसर सूरजकुण्ड रोड (आयुष ग्राम मार्ग) चित्रकूट धाम 210205(उ०प्र०)
प्रधान सम्पादक
आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी
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