रोगमुक्ति और उन्नति चाहिए तो अपनायें अध्यात्म भी!!



अध्यात्म-

रोगमुक्ति और उन्नति चाहिए तो अपनायें अध्यात्म भी!!

                पिछले महीने दिल्ली से किडनी फेल्योर के एक मरीज चन्दन शाही आयुष ग्राम चिकित्सालय चिकित्सा हेतु आये। हमने देखा कि चन्दन शाही जी जितने सकारात्मक, शांत, धीर और गंभीर हैं उतनी ही उनकी धर्मपत्नी भी। उनकी विशेषता देखी कि चिकित्सा के बाद जो भी समय रहता तो व्यर्थ के प्रपंच में न लगकर ध्यान और जप में लग जाते। सुबह-शाम तो १-१ घण्टे का उनका नियम था ही। परिणाम यह आया कि उनका यूरिया, क्रिटनीन तेजी से घटने लगा, वे लगभग डेढ़ माह तक आयुष ग्राम चिकित्सालय में रुके, जबकि वे भारत के बड़े-बड़े हॉस्पिटल में चक्कर लगा चुके थे। उनका विडियो अवश्य सुनने योग्य है जिसको आप लिंक.. https://youtu.be/d-EVu7oIcXU है।

                पिछले कुछ वर्षों तक भले ही अध्यात्म को अन्धविश्वास माना जाता रहा हो पर जब  से ध्यान, जप, आसन और योग पर पश्चिमी देशों में वैज्ञानिक अध्ययन होने लगे और उसके आश्चर्यचकित करने वाले परिणाम आने लगे तब से नवयुवकों का झुकाव अध्यात्म की ओर बड़ी तेजी से हो रहा है। मानव के समझ में आ गया कि अध्यात्म ही मानव को सुख और शांति दे सकता है।

                इसीलिए वैदिक चिकित्सा में मानव के स्वास्थ्य, सुख और कल्याण के लिए बहुत ही सूक्ष्मता, गहनता, विशदता और वैज्ञानिकता के साथ चिंतन तथा अवधारण हुआ। विश्व के प्रथम शल्य (Surgery) वैज्ञानिक आचार्य सुश्रुत तक ने अपने शिष्यों को लेक्चर देते हुए स्पष्ट बताया कि यदि व्यक्ति को रोगों का निग्रह (Control) करना है तो संशोधन (Body Purification), संशमन (पकिफ़्यिंग Therapy), आहार और आचार, आयु आदि का विचार करके सम्यक् प्रकार से प्रयुक्त करना होगा।

‘‘तेषां संशोधनसंशमनाहारचारा: सम्यकप्रयुक्ता निग्रहहेतव:।।’’

सु.सू. १/२६।।

                इस सूत्र से स्पष्ट हो गया कि व्यक्ति को रोगों से बचना है या उनसे निवृत्त होना है तो केवल शरीर के शोधन (पंचकर्म), औषधियों तथा परहेजी भोजन से काम चलने वाला नहीं है। उसके लिए आचार को भी अपनाना होगा। यही कारण है आचार्य चरक ने आचार रसायनपर विशेष जोर दिया है।  

                आचार्य चरक ने यहाँ तक कह दिया है कि रसायन सेवन के लिए ऐसे व्यक्ति अधिकारी यानी पात्र ही नहीं-

मन: शरीर शुद्धानां सिद्ध्यान्ति प्रयत्गत्मनाम्।

तदेतन्न भवेद् वाच्यं सर्वमेव हतात्मसु।

अरुजेभ्योऽद्विजातिभ्य: शुश्रूषा येषु नास्ति च।।

च.चि. १/४।।

¬  जिनमें प्राणि मात्र की सेवा का भाव नहीं है।

¬  जिनकी आत्मा गिर चुकी है, मर चुकी है यानी जिनका नैतिक पतन हो                  चुका है, कर्तव्य अकर्तव्य  से जो विमुख हो चुके हैं।

¬  जो कुसंस्कारी हों और जो निरोग हों।

¬   जो शारीरिक और मानसिक दृष्टि से पवित्र नहीं हैं।

¬   जो संयत चित्त न हों, अन्तद्र्वन्द्व, सन्देह से घिरे हों।

                आचार्य श्रीमद्वाग्भट ने तो सीधे लिख दिया है कि- 

                ‘‘जो व्यक्ति निरन्तर सत्यवादी बना रहता है, क्रोध को दूर रखता है जो अपनी इन्द्रियों को विषयों के गुलामी से दूर रखकर अध्यात्म में लगाकर रखता है, सदैव शान्त रहता है और सदाचार में लगा रहता है वह बिना दवा के ऐसी (ईश्वरीय) दवा का सेवन करता है जो अकाल बुढ़ापा और रोगों को मिटा देती है जिसका नाम रसायन है।’’ (अ.हृ. उत्तर. ३९/१७९)

                अब इससे बड़ा और क्या प्रमाण चाहिए मानव को आध्यात्मिक शक्ति और आत्मोन्नति का। महान् चिकित्सा आचार्य वाग्भट तो मानसिक स्वस्थता, अट्टश्य बुरी तकतों के निवारणार्थ जपपर जोर देते हैं (अ.हृ.उ. ५/५० एवं ५/५२)

 





आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी!

चिकित्सा पल्लव जुलाई 2022

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