बुढ़ापे के कष्ट दूर रहेंगे इन 10 सूत्रों से

 

बुढ़ापे के कष्ट दूर रहेंगे इन 10 सूत्रों से 

बीमारी केवल उसी अवस्था को नहीं कहा जाता जब उसे कोई रोग हो जाय बल्कि वैदिक चिकित्सा आयुर्वेद बुढ़ापा, नींद, भूख, प्यास आदि को भी स्वभाविक व्याधि कहता है। बुढ़ापा को यदि अच्छे से न जिया जाय तो यह अवस्था भार हो जाती है। अपनों की उपेक्षा, दूसरों से अपेक्षा स्वयं की मानसिक अस्थिरता तथा रोग प्रतिरोधक क्षमता की दुर्बलता ये बुढ़ापे को अभिशाप बना देती हैं।

वयोऽहोरात्रिभुक्तानां तेऽन्तमध्यादिगा: क्रमात्।।

अ.हृ.सू. १/७।

के अनुसार बुढ़ापे में वात दोष विशेष रूप से प्रकुपित (Hyper Active) हो जाता है। परिणाम स्वरूप मानसिक अस्थिरता, शरीर के अंगों और हड्डियों में काठिन्यता, त्वचा में रूखापन तो वाणी की कर्कशता, वाचलता, बुद्धि और इन्द्रियों में चांचल्य बढ़ने लगता है। उधर वातदोष के विशेष रूप गतिशील रहने से पाचन क्रिया में वैषम्य हो जाता है।, कभी भूख तेज तो कभी बिल्कुल नहीं तो कभी कब्ज तो कभी पतले दस्त। कभी नींद बहुत अच्छी तो कभी नहीं। रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है। ऐसे में ये उपाय बहुत ही कारगर, लाभप्रद और सुखदायक होते हैं।

भोजन प्रक्रिया- बुढ़ापे में भोजन हल्का, सुपाच्य, चिकनाई युक्त लेना चाहिए। चिकनाई में शुद्ध सरसों का तेल या गोघृत ही लेना चाहिए। मधुर, अम्ल, लवण रसों का सेवन संतुलित मात्रा में अवश्य करना चाहिए। यदि किसी ने आपको तेल, घी बिल्कुल मना कर दिया है सो समझें वह वैदिक चिकित्सा सिद्धान्तों के विपरीत है।

                बुढ़ापे में एक बार में ढेर सा आहार नहीं लेना चाहिए बल्कि थोड़ा-थोड़ा ही आहार का सेवन करना चाहिए।

         भोजन में टमाटर के स्थान पर आँवले का सेवन चूर्ण के रूप में दाल सब्जी में डालकर या थोड़ा सेंधानमक मिलाकर बुकनी के रूप में, शर्बत के रूप में, स्वरस के रूप में अवश्य लेना चाहिए। आँवला ऐसा फल है जिसमें बुढ़ापा और व्याधि नाशक गुण हैं इसमें अम्ल प्रधान, मधुर, कटु, तिक्त कषाय ये पाँचों रस रहते हैं, यह पचने के बाद मधुर हो जाता है। नाड़ी तंत्र और इन्द्रियों के लिए यह बलवर्धक है। यह वात, पित्त, कफ तीनों पर कार्य करता है। ध्यान रखने की बात यह है कि आँवला अचार निर्माण में मिलाये गये तेल, लवण, कटु (राई) आदि पदार्थ आँवले के रोगहारक रासायनिक गुण को कम कर देते हैं।

         आँवला हृदय को भी लाभ पहुँचाता है। मन, बुद्धि को सात्विक रखते हुए, आध्यात्मिकता वातावरण (शांत, तनावयुक्त, धैर्ययुक्त, रोग द्वेष रहित, मन को बनाये हुए) यदि आँवले का सेवन किया जाय तो चमत्कार दिखाता है।

                च्यवनप्राश का मुख्य घटक यही आँवला जिसका सेवन कर पूरी तरह से बूढ़े हो चुके च्यवन ऋषि पुनर्युवा हुये थे।

अस्य प्रयोगाच्यवन: सुवृद्धोऽभूत् पुनर्युवा।।

च.चि. १/१/७२।।

    वैदिक चिकित्सा वैज्ञानिकों ने उदाहरण देते हुए स्पष्ट किया है कि-

तपसा ब्रह्मचर्येण ध्यानेन प्रशमेन च।

रसायनविधानेन कालयुत्तेन चायुषा।।

स्थिता महर्षय: पूर्वं नहि विंचिद्रसायनम्।

ग्राम्याणामन्यकार्याणां सिद्धयत्यप्रयतात्मनाम्।।

च.चि. १/७-८।।

                अर्थात् प्राचीन काल में ऋषियों ने बुढ़ापा और व्याधि नाशक रसायनों का सेवन कर दीर्घायु तो प्राप्त किया पर प्राप्त जीवन को तपस्या, ब्रह्मचर्य, ध्यान और शांति के मार्ग में लगाया।

➦            ध्यान रखने की बात है कि कोई भी असंयमी, इन्द्रियों को वश में न रखने वाले, स्त्री भोगविलास में लिप्त, तपस्या, ब्रह्मचर्य, जप, ध्यान और शांति से हीन व्यक्ति रासायनसेवन करता है तो उसे लाभ नहीं पहुँचता।

                इस उदाहरण से स्पष्ट है कि बुढ़ापे को कष्ट रहित बनाने के लिए शांति, तपस्या, सेवा, जप, ध्यान और ब्रह्मचर्यपूर्ण जीवन आवश्यक है। वृद्धावस्था की कुछ समस्याओं के समाधान हेतु ये उपाय अपना सकते हैं।

१. दुर्बलता/कमजोरी निवारण- सोंठ, मुनक्का (बीज निकालकर), जीरा, मेथी, छोटी हरड़ और दालचीनी को मिलाकर ५-५ ग्राम के लड्डू बना लेना है २-२ लड्डू भोजन के पूर्व सेवन करने से दुर्बलता (कमजोरी) तो मिटेगी ही, साथ ही खून भी बढ़ेगा और कब्ज एसिडिटी की शिकायत भी दूर होगी। इसे पूरे शीतकाल भी सेवन किया जा सकता है।

२. बेल्स पाल्सी या लकवे से बचें- बुढ़ापे में इस बीमारी से अवश्य बचना चाहिए बेल्स पाल्सी को फेसियल भी कहते हैं, आयुर्वेद में इसे अर्दित कहते हैं। सर्दियों के घना कुहरा जब वातावरण का तापमान तेजी से कम हो जाता है उस समय कमजोर, हृदय रोगी मधुमेह रोगी बूढ़े लोगों में इस बीमारी का आक्रमण हो जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाये रहें, व्यर्थ की चिंता से दूर रहें, नित्य महानारायण या सरसों तैल की मालिश तथा नाक के दोनों छिद्रों में लेटकर ३-३ बूँद गोघृत डालते रहने से बेल पाल्सी या लकवे से बचाव होता है।

३. नित्य मालिश- बुढ़ापे में नित्य मालिश करना या कराना चाहिए क्योंकि इस अवस्था में शरीर की वायु विशेष रूप से क्रियाशील रहती है। चरकाचार्य का शोध है कि स्पर्श ज्ञान कराने वाली इन्द्रिय त्वचा में अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा वायु का अंश अधिक है, मालिश से वायु का संतुलन बना रहता है क्योंकि तेल वायु विरोधी है। चरकाचार्य का यह भी शोध है कि नित्य मालिश का उपयोग करने से बुढ़ापा धीरे-धीरे आता है और बुढ़ापे का प्रभाव कम अंशों में दिखता है। यही कारण है कि वाग्भटाचार्या ने मालिश को बुढ़ापा का अचूक इलाज ही बता दिया- ‘‘मालिश (अभ्यंग) प्रतिदिन कराना या करना चाहिए इससे बुढ़ापे का प्रभाव मिटता है, थकावट तथा अन्य वातज विकार (Neurological disorder) नष्ट होते हैं इससे शरीर को पोषण मिलता है, उम्र बढ़ती है, गहरी नींद आती है, त्वचा, मांसपेशियाँ और हड्डियाँ स्वस्थ रहती हैं।’’

४. पादाभ्यंग (पैरों की मालिश)- यदि कदाचित् पूरे शरीर की मालिश न हो सके तो नित्य सोते समय पैर के तलवों में मालिश करने से जकड़ाहट, रूखापन, थकावट, सूनापन मिटता है। चरक लिखते हैं कि-

बलं स्थैर्यं च पादयो:।

दुष्टि: प्रसादं लभते मारुतश्चोप शाम्यति।।

च.सू. ५/९१।।

                इससे पैरों का बल और मजबूती आती है, आँखों की ज्योति स्थायी रहती है, वातज विकार शांत होते हैं तथा वात विकारों से होने वाली तमाम व्याधियों का आक्रमण नहीं होता।

               

हम तो कहते हैं कि बेटा, बहू और शिष्यों को यह सेवा अवश्य करनी चाहिए इसका आध्यात्मिक लाभ बहुत बड़ा मिलता है। श्रीमद्भागवत महापुराण के ६/३/२२ में कहा गया है कि सृष्टि के आदि में विराट शरीर के चरणों में लोकेश विष्णु का प्रवेश हुआ जिससे गतिशक्ति मिलती है। चरणों का स्पर्श, सेवा, प्रणाम, भगवान् का स्पर्श सेवा और प्रणाम है।

५. नमक का सेवन अत्यल्प- निश्चित रूप से शरीर के लिए नमक बहुत आवश्यक है, यह इलेक्ट्रोलाइट को बैलेंस रखता है, यह पाचन प्रक्रिया को भी तेज करता है, मॉडर्न मेडिकल साइंस के अनुसार नमक शरीर में वाटर रिटेंशन को बढ़ाता है और प्यास जगाता है। चूँकि वृद्धावस्था में बहुत शारीरिक परिश्रम होता नहीं, पसीना भी नहीं निकलता इसलिए अति नमक सेवन गुर्दों पर दबाव डालता है और रक्त में गर्मी पैदा करता है। आचार्य चरक ने नमक को दोषसंचयानुबन्धनम् बताया है यानी अधिक मात्रा में सेवन करने से दोषों का संचय होता है। नमक में केवल सैन्धव लवण का ही अल्प मात्रा में प्रयोग करना चाहिए। जिन्होंने नमक के अति सेवन की आदत बना ली है उनके शरीर में झुर्रियाँ शीघ्र आती हैं तथा अन्य विकार भी।

६. चीनी के स्थान पर गुड़ या मँगरा खाँड़-फेद चीनी इसे रिफाइण्ड शुगर भी कहा जाता है इसे रिफाइण्ड करने के लिए सल्फर डाई ऑक्साइड, फास्फोरिक एसिड, कैल्शियम, हाई ऑक्साइड का उपयोग किया जाता है जो स्वास्थ्य के लिए बेहद हानिकर है। इसके विटामिन्स, मिनरल्स, प्रोटीन, एंजाइम्स जैसे पोषक तत्व नष्ट हो जाते हैं, यह रोग प्रतिरोधक क्षमता को बहुत ही हानि पहुँचाती है यह केवल शरीर के लिए ही नहीं बल्कि मन-मस्तिष्क के लिए भी जहर है। इसके स्थान पर देशी गुड़, मँगरा खाँड़ या मटमैली रंग की चीनी का प्रयोग किया जाना चाहिए। देशी गुड़ तो रक्त को बढ़ाता है, शरीर को पोषण देता है तथा पाचनशक्ति को ठीक करता है, गैस और कब्ज निवारक भी है।

७. मैदा- इसे रिफाइण्ड फ्लोर भी कहते हैं इसमें मिनरल, विटामिन्स या किसी भी प्रकार का पोषण नहीं होता। इसके खाने से तुरन्त नुकसान तो नहीं होता पर धीरे-धीरे शरीर को कई तरह से हानि पहुँचती है। यह भी जान लें कि बाजार में मौजूद ८० फीसदी बेकरी उत्पाद मैदे से ही बनते हैं। जो कि आँतों में चिपकता है परिणामत: पाचन प्रणाली पर दूरगामी दुष्प्रभाव पड़ता है। अत: हमेशा चोकर सहित आटे का ही प्रयोग करना चाहिए, आजकल प्राचीन नस्ल के गेंहूँ की पैदावार भी बढ़ रही है जिसमें ग्लूटेन नाम माना है।

८. अधिक और बे मौसमी पत्तेदार शाक और सलाद नहीं- बुढ़ापे में यदि सही ढंग से भोजन नहीं पच रहा यानी पाचकाग्नि कमजोर है तो बिना पकायी साग, सब्जी या सलाद का सेवन नहीं करना चाहिए। पत्तेदार शाकों में बथुआ, चौलाई, पुनर्नवा, जीवन्ती ही शाक गुणकारी है। पालक का शाक बहुत हितकर नहीं है, अत: इन्हीं शाकों का प्रयोग करें।

९. कब्ज गैस एसिडिटी, अपच- बुढ़ापे में कब्ज, गैस, एसिडिटी की बार-बार समस्या आती है। इसके लिए सनाय/सोनामुखी मिले चूर्ण सेवन नहीं करना चाहिए इससे आँतें और निष्क्रिय होती जाती हैं। भोजन पूर्व शुण्ठीधान्यक घृत ५ ग्राम चाटकर थोड़ा गरम पानी सेवन कर लें यह पेट के लिए रामबाण है। इसके अलावा सोंठ, मेथी, दालचीनी और असगन्ध मिश्रित चूर्ण ४-४ ग्राम दिन में २ बार भोजन के बाद लेने से कब्ज, गैस से मुक्ति मिलती है। सामान्य एसिडिटी गैस में आधा भुना, आधा कच्चा जीरा मिलाकर चूर्ण कर २-२ ग्राम सेवन करने से लाभ होता है। रात्रि का भोजन कम मात्रा में और बहुत कम लें तथा सोने के २-३ घण्टे पूर्व लें।

१०. आध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त रहें- वैदिक चिकित्सा विज्ञान में स्वस्थ होने या रहने के लिए आध्यात्मिक चिकित्सा का वर्णन है जिसे देवव्यापाश्रय चिकित्सा कहा जाता है जिसमें गुरुमंत्र जप, ध्यान, प्राणायाम, योग, हवन, स्रोत्र पाठ, सद्ग्रन्थों का अध्यमन और तदनुसार आचरण, साधुजनों का सेवन, तीर्थयात्रा, गोसेवा का निर्देश है। निश्चित रूप से आध्यात्मिक शक्ति अर्जित किए बिना दुरूह कार्य सहजता से सम्पन्न नहीं होते। अत: अध्यात्मिकता की ओर प्रवृत्त रहे और वर्तमान में जीने का प्रयास करें, व्यस्त रहें।

                किसी भी तरह के दुव्र्यसन, निन्दा, चुगली, ईष्र्या से बचें और ऐसे व्यक्तियों के संग से भी बचें। निश्चित रूप से वृद्धावस्था कष्ट रहित रहेगी।


✒ आचार्य डॉ0 मदन गोपाल वाजपेयी

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