अवश्य पढे कैंसर घोसित रोगी की चिकित्सा ब्यवस्था॥
रोगी उदावर्त का : डॉक्टर ढूँढ रहे थे कैंसर!
सावधान ऐसे डॉक्टरों और अस्पतालों से!!
➡३ अक्टूबर २०२१ को बिहार (सारण) सोनपुर सबलपुर के जलेश्वर राय उम्र ५३ वर्ष को उनके परिवारीजन लेकर आये। रोगी की उम्र तो अधिक नहीं थी पर रोग और गलत चिकित्सा ने रोगी को कृश और बूढ़ा बना दिया था। रोगी को विकराल समस्या थी-
➡पेट दर्द और कमजोरी थी।
➡जलेश्वर राय के पेट में न तो दवा जाती थी न भोजन जाता था।
➡ रोगी उल्टी के भय से कुछ भी खाने-पीने से डरता था। क्योंकि गले से नीचे कुछ जा ही नहीं रहा। कानों में भनभनाहट, मनोविभ्रम भी था।
केस हिस्ट्री के दौरान पता चला कि रोगी कषैला, तिक्त, कटु रस वाले पदार्थों का बहुत सेवन करता था। समय पर न शौच जाना है न भोजन करना शामिल था। रही सही कसर रुक्ष प्रवृत्ति की एलोपैथ दवाओं ने पूरी कर दी। इन लक्षणों के आधार पर स्पष्ट था कि जलेश्वर राय को अपथ्यज उदावर्त था जिसमें वात की प्रधानता होती है। दुनिया के प्रथम शल्य वैज्ञानिक आचार्य सुश्रुत कहते हैं-
वायु: कोष्ठानुगो रुक्षै: कषायकटुतिक्तकै;।
भोजनै: कुपित: सद्य उदावत्र्त करोति हि।
वातमूत्रपुरीषसृक्कफमेदोवहानि वै।
स्रोतांस्युदावर्तयति पुरीषं चातिवर्तयेत्।
ततो हृद्वस्तिशूलार्तो हृल्लासारातिपीडित:।
वातमूत्रपुरीषाणि कृच्छ्रेण लभते नर:।।
श्वासकास प्रतिस्यायदाहमोहतृषाज्वरान्।
वमिहिक्काशिरोरोग गमन: श्रवणविभ्रमान्।
बहूनन्यांश्च लभते विकारान् वातकोपजान्।। सु.उ. ५५/४०।।
➡अपथ्य करने से अर्थात् रुखा, कषैला, कड़वा और तीखा खान-पान करने से कोष्ठगत वायु कुपित होकर उदावर्त नामक व्याधि उत्पन्न कर देता है। कोष्ठ में स्थित यह वात मूत्र, वात, पुरीष, रक्त, कफ और मेदोवह स्रोतों में बिगाड़ ला देता है। पुरीष (मल) को सुखा देता है। इससे व्यक्ति के छाती में दर्द होने लगता है, बस्ति Urinary tract /मूत्राशय) में भी दर्द/कठिनाई पैदा कर देता है जिससे भारीपन, अरुचि से कष्ट होता है। उधर वायु, मूत्र और मल का बड़ा कठिनाई से त्याग तो करता है तो उधर श्वास,कास, प्रतिश्याय, दाह, मोह, वमन, ज्वर,प्यास, हिचकी, शिरोरोग,मनोविभ्रम, कानों में विभिन्न प्रकार की आवाजें, पेट फूलना आदि विकारों से पीड़ित हो जाता है।
➡इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि श्री जलेश्वर राय केवल ‘उदावर्त ’ रोग से पीड़ित थे जिससे वमन, मनोविभ्रम, उदरविकार, अरुचि और शूल था और डॉक्टर ढूँढ़ रहे थे कैसर।
➡इस रोगावस्था में महान् शल्य शास्त्री आचार्य सुश्रुत बहुत ही सरल निर्देश करते हैं-
तं तैललवणाभ्यत्त्म स्निग्धं स्विन्नं निरूहयेत्।दोषतो भिन्नवर्चस्क भुक्त्त्मचाप्यनुवासयेत्।। सु.उ. ५५/४१-४२।।
यानी स्नेहन स्वेदनोपरान्त निरूहण बस्तियों का और भोजन कराकर अनुवासन बस्तियों का प्रयोग करें। में भी उल्लेख है-
‘‘उदावत्र्ते त्वपथ्योत्थ सुनिरूढं ततो भिषक्।
यथादोषं भुक्तवन्तमाशु चैवानुवासयेत्।।’’
शास्त्र के उक्त निर्देशानुसार श्री जलेश्वर राय जी को स्नेहन, स्वेदन और बलाजीरकादि कषाय की निरूह बस्ति और पर्यायक्रम से पिप्पल्यादि तैल की अनुवासन बस्तियाँ दी गयीं।
औषधि व्यवस्था पत्र में- १. सुश्रुतोक्त देवदार्वादि कषाय ५०-५० मि.ली. दिन में ३ बार। लेकिन जैसे ही रोगी को उक्त कषाय दिया गया पर रोगी ने तुरन्त वमन कर दिया। दरअसल उदावर्त के कारण निरन्तर धातुक्षीणता होती गयी दुर्बलता भी बढ़ती गयी। अत: वायु प्रकोप और बढ़ता गया। परिणामत: रोग की तीव्रता भी बढ़ती गयी।
सबसे बड़ी समस्या यह थी जैसे ही औषधि मुख में जाती उल्टी हो जाती, अत: निम्नांकित औषध योग मधु से घोलकर केवल हर ४ घण्टे में जीभ में लेप की गयी। जीभ में लगाने से औषधि की ‘रस क्रिया’ शुरू हुयी और उसी दिन वमन रुक गया।
➡हीरक भस्म ५० मि.ग्रा., चतु:षष्ठिप्रहरी पिप्पली ५ ग्राम, अभ्रक भस्म सहस्रपुटी ३ ग्राम, जवाहर मोहरा (नं.-१) २ ग्राम। सभी को घोंटकर ३० मात्रा। १-१ मात्रा हर ४ घण्टे में जीभ में लेप किया गया।
दरअसल इस रोगी में वमन का मूल कारण वात प्रकोप, वात प्रकोप से धातुक्षय, दौर्बल्य। वात दोष का ऊध्र्वगमन परिणामत: वमन और ग्रासनली में अवरोध।
ध्यान रखने की बात है कि अवरोध (Obstruction) कर्म कफ का मानना बहुत बड़ी भूल है। अवरोध (Obsctruction /Barricade ) वायु का कर्म है ‘‘संस्रभ्रंस
व्याससङ्गभेदसादहर्षतर्षकम्पवर्तचालतोदव्यथाचेष्टादीनि’’ (च.सू. २०/१२) ऐसे ही सुप्ति और संकोच (Shrink) भी वात का ही कार्य है। इस केस में जैसे ही वात का असंतुलन हुआ दोष, धातु, मलों की स्थिति असंतुलित हो गयी। क्योंकि वायु ही ‘धातुव्यूहकर’ है। चिकित्सा में प्रयुक्त पंचकर्म ने पक्वाशय के अवरोध को हटाया तो उधर उक्त औषध योग ने पित्त को बढ़ाया, बढ़ते पित्त की स्निग्धता ने वात की रुक्षता, खरता को मिटाने का कार्य किया जिससे सूख चुके कफ (स्नेह) की वृद्धि हुयी। उधर पित्त के कारण अग्नि की स्थिति सम्यक् हुयी तो बढ़े हुये कफ ने ईधन का कार्य किया अत: धातु पोषण और बलवर्धन हुआ इससे ‘वात’ संतुलित हुआ, वात की प्रतिलोम गति रुक गयी और अनुलोम गति हो गयी। संतुलित वात ने अपना प्राकृतिक कर्म ‘समो मोक्षो गतिमतांम्’ (च.सू. १८/४९) मल मूत्र का सम्यक् प्रवृत्त करने का कर्म किया, परिणामत: वमन रुक गया, आहार, औषध सब पेट में जाने लगा।
तीसरे दिन से उपर्युक्त (सुश्रुतोक्त) कषाय भी पेट में जाने लगा। तीसरे दिन से पेट के दर्द में आराम मिल गया। जब औषधि मुँह में जाने लगी तो शीघ्र रोग निवारणार्थ, बलवर्धनार्थ, रसायन कर्म सम्पादनार्थ रसेन्द्रसार संग्रह के मत से निर्मित महामृगांक रस हीरक युक्त १२५-१२५ मि.ग्रा. दिन में २ बार मधु के अनुपान से देने का निर्देश दिया गया। रात में सोते समय खमीरेगावजवाँ ५ ग्राम दूध से। इस रसौषधि के प्रयोग काल में ‘ककाराष्टक’ का सेवन वर्जित है। यदि नियम, रोग/रोगी को ध्यान में रखकर इस औषधि का प्रयोग किया जाय तो चमत्कार दिखाता है। शास्त्र में स्पष्ट लिखा है कि-
‘‘पित्तार्तिं समलग्रहान् बहुविधानन्यांस्तथा नाशयेत् ।।’’
यानी मलावरोधजन्य विकार में यह चामत्कारिक औषधि है और उदावत्र्त में ‘समलग्रह’ की स्थिति अवश्य बनती है।
तीन सप्ताह की चिकित्सा से रोगी को पुनर्जीवन मिल गया। डिस्चार्ज के समय रोगी के बेटे ने अपने भाव इस प्रकार व्यक्त किये-
➡मेरे पिता जी जलेश्वर राय (उम्र ५३), को ३ साल से गैस की समस्या, पेट में दर्द बना ही रहता था, सबसे पहले मैंने पटना के पीएमसी के सरकारी हॉस्पिटल में दिखाया, वहाँ पर एलोपैथिक दवायें व इंजेक्शन लगवाने के बाद कुछ घण्टों के लिए आराम मिल जाता था, जब तक दवायें तब तक आराम।
➡अभी २ माह से बहुत ज्यादा समस्या हुयी, कुछ भी खाने पर उल्टी हो जाती थी, कमजोरी और पेट में दर्द बहुत ज्यादा।
➡हम लोग पटना व हाजीपुर के कई हॉस्पिटलों में दिखाया, जितनी देर दवाओं का असर रहता तब तक आराम रहता, फिर से पटना के पीएमसी के सरकारी हॉस्पिटल में ले गये वहाँ पर अल्ट्रासाउण्ड हुआ। मुझे बताया गया कि तुम्हारे पिता जी को कैसर की सम्भावना है, हम लोगों ने अपने पिता जी को कैसर की जानकारी नहीं दी लेकिन पीएमसी हॉस्पिटल के डॉक्टर ने पटना के दूसरे हॉस्पिटल के लिए रिफर कर दिया और कहा कि सेवा कर लो और जो माँगें वह सब दो।
➡हम लोग घर ले आये। तभी मुझे मेरे गाँव के एक पड़ोसी व्यक्ति द्वारा जो ५-६ सालों से किडनी का इलाज करवाकर स्वस्थ है के द्वारा चित्रकूट के आयुष ग्राम ट्रस्ट के आयुष ग्राम चिकित्सालय के बारे में पता चला।
➡मैं दिनांक ३ अक्टूबर २०२१ को अपने पिता जी को आयुष ग्राम चित्रकूट लेकर पहुँचा। यह बहुत बड़ा आयुर्वेद का संस्थान है। उस समय कई समस्यायें थीं-
➡कुछ भी खाने-पीने से उल्टियाँ हो जाती थीं, गले से नीचे कुछ भी नहीं जा रहा था, बिना सहारे के बिल्कुल चल नहीं पा रहे थे। भूख नहीं लग रही थी, पेट में दर्द बना ही रहता था, कमजोरी बहुत थी, वजन सिर्फ ३६ किलो हो गया था।
➡हमने कहा कि इनके पेट में दवायें नहीं जा पा रहीं क्या होगा? डॉक्टर साहब ने कहा कि परेशान न हो।
दवायें लिखी गयीं, यहाँ की प्रशिक्षित नर्सों ने दवायें शहद में मिलाकर जीभ में बार-बार लेप कराई। २ खुराक ही दवा लेने के बाद मेरे पिता जी की उल्टियाँ बिल्कुल बन्द हो गयीं और १० दिनों में भूख भी अच्छी लगने लगी, पेट के दर्द में बहुत आराम मिल गया। मैंने यहाँ आयुर्वेद और आयुर्वेद के रसों का प्रभाव देखा, जैसा हमारे पुरखे बताते थे कि आयुर्वेद में ऐसे-ऐसे रस हैं कि प्राण फूक देते हैं। ३ सप्ताह में मेरे पिता जी पूरी तरह ठीक हो गये।
इस समय खूब घूमने-फिरने लगे हैं, कमजोरी बहुत कम हो गयी।
मैं यहाँ के सभी डॉक्टरों और इस हॉस्पिटल के कर्मचारियों को कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ जिन्होंने मेरे पिता जी को बचा लिया।
- वकील राय पोस्ट- सोनपुर (सारण), छपरा (बिहार)
एक जलेश्वर राय की समस्या नहीं बल्कि जलेश्वर राय जैसे अनेकों लोग ‘रोग कुछ और चिकित्सा कुछ’ के जाल में हर साल मौत के मुँह में जा रहे हैं। यदि ऐसे लोग आज भी अपने देश की प्राचीन और वैदिक पद्धति के अच्छे चिकित्सालय/संस्थानों में लायें जायें तो जीवन बचाया जा सकता है या उनका जीवन बढ़ाया जा सकता है। बस! रोग बहुत खराब न कर दिया गया हो और रोगी की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत बर्बाद न हो गयी हो। आवश्यकता है इस ओर प्रेरित करने की और जागृति लाने की।
आशा है कि आप सभी पाठक गण इस आलेख से लाभ उठायेंगे और अन्य को भी भेजेंगे। अंत में हम इतना कहते हैं कि रोगी बहुत बिगड़ा न हो तो शास्त्र सम्मत निदान और चिकित्सा हो, बड़े-बड़े रोग मैदान छोड़ देंगे। नम: आयुर्वेदाय !!
प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव और आयुष ग्राम मासिक
पूर्व उपा. भारतीय चिकित्सा परिषद
उत्तर प्रदेश शासन
डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी
इनके शिष्यों, छात्र, छात्राओं की लम्बी सूची है । आपकी चिकित्सा व्यवस्था को देश के आयुष चिकित्सक अनुसरण करते हैं ।
0 टिप्पणियाँ