आयुष ग्राम ने बचा लिया : श्रीमती शीतल को डायलेसिस से

३० जून २०१९ को आयुष ग्राम ट्रस्ट के आयुष ग्राम चिकित्सालयम् चित्रकूट में कटनी (म.प्र.) से श्रीमती शीतल नामक एक  ४५ वर्षीय महिला को लेकर उसके पति आये। दरअसल वे कानुपर रीजेन्सी से इलाज कराकर कटनी जा रहे थे। उन्हें रीजेन्सी के डॉक्टरों ने अब लगातार डायलेसिस के लिये कहा था। उन्हें कटनी जाते समय टे्रन में किसी यात्री से ‘आयुष ग्राम’ चित्रकूट की जानकरी मिली।
आयुष ग्राम चित्रकूट आने पर ओपीडी नं. ५९/५५२४ पर उनका रजिस्ट्रेशन हुआ। केस हिस्ट्री के क्रम में उन्होंने बताया कि-
शिर दर्द, डिप्रेशन की अंग्रेजी लम्बे समय तक खाती रहीं। कुछ दिन बाद चक्कर आने लगे, जाँच कराया ततो पता चला कि यूरिया, क्रिटनीन बढ़ रहा है और दोनों गुर्दे (किडनी) खराब हो गये हैं। अब अंग्रेजी डॉक्टर और अस्पताल डायलेसिस का दिन तय कर दिया।
विडम्बना तो देखिए कि आज देश में अंग्रेजी चिकित्सा में इलाज के नाम पर केवल इतना ही किया जा रहा है कि बढ़ा हुआ यूरिया क्रिटनीन कैसे घटे?
पर इस पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा कि आखिर यूरिया, क्रिटनीन बढ़ने का मौलिक, भौतिक कारण क्या है उस कारण की चिकित्सा की जाय। एलोपैथिक में यह भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है कि रोगी में शिरदर्द, डिप्रेशन, रक्तचाप या मधुमेह है तो इसके मूल कारण को नष्ट करें अन्यथा लाक्षणिक चिकित्सा के नाम पर दी जा रही ये केमिकल दवाइयाँ शरीर को ही नष्ट कर डालेंगी।
आयुष ग्राम चिकित्सालयम्, चित्रकूट में आधुनिक जाँचों पर तो ध्यान दिया जाता है ही साथ ही आयुर्वेद विज्ञानोक्त दशविध परीक्षण कर रोग के मूल कारण पर जितना पहुँचा जाता है उसी के अनुसार

चिकित्सा क्रम और औषधि का चुनाव किया जाता है। इसी प्रोटोकॉल पर नवयुवा आयुष स्नातकों को चलना चाहिये। जितना अच्छा और सूक्ष्म निदान होगा उतनी अच्छी चिकित्सा हो सकेगी और उतना ही सुपरिणाम आयेगा।
चरकाचार्य जी का निर्देश है-
रोगमादौ परीक्षेत् ततोऽनन्तरमौषधम्।
तत: कर्म भिषजं पश्चाज्ज्ञानपूर्वं समाचरेत्।।
(च.सू. २०/२४१)

  •  श्रीमती शीतल को उल्टी की इच्छा, भूख न लगना, कमजोरी, साँस पूâलना, कब्ज, पेशाब में असुविधा आदि परेशानियाँ थी।
  • सामान  वायु, अपानवायु, साधक पित्त, पाचक पित्त की विकृति साफ साफ दिखायी दे रही थी।
  •  रोगी में वातज मन्दाग्नि के लक्षण जिससे विष्टब्धाजीर्ण था।
  •  रोगिणी में सामपित्त का निर्माण और ओजक्षय के लक्षण भी स्पष्ट थे।
  •  रोगिणी में एक विशेष बात थी कि वह गुरु व्याधित थी- तद्यथा गुरुव्याधित: एक: सत्वबल शरीरसम्पदुपेतत्वाल्लघु व्याधित इव दृश्यते।। च.वि. ७/३।। यह लक्षण चिकित्सक और रोगी दोनों के लिये शुभ लक्षण माना गया है।
  •  श्रीमती शीतल में पित्तावृत वायु और मूत्रावृतवात के लक्षण पर्याप्त मिल रहे थे जिससे तृषाधिक्यता, भ्रमोत्पत्ति, तम:प्रवेश, शीत सेवन की इच्छा, कटु अम्ललवण, उष्ण द्रव्यों से विदाह और मूत्राशय में आध्मान था।

रोगिणी की जाँच रिपोर्ट में जो रीजेन्सीr कानपुर की थी, उसमें दिनाँक २० जून २०१९ को हेमोग्लोबिन १०.१ जी/डीएल,यूरिन में एल्ब्यूमिन १+ में ब्लड यूरिया नाइट्रोजन ४५.२८ एमजी/डीएल, सीरम क्रिटनीन १२.३७ था।
रिपोर्ट नीचे स्केन की जा रही है-


चिकित्सा प्रारम्भ करने के पूर्व जब आयुष ग्राम चित्रकूट में जाँच करायी हो ब्लड यूरिया नाइट्रोजन ६६.% क्रिटनीन ११.८% फास्फोरस ५.४% और हेमोग्लोबिन ९.४ तथा यूरिन में १+ एल्ब्यूमिन था।
श्रीमती शीतल जी की रोग की सप्राप्ति पर जब व्यक्तिगत रूप से विचार किया गया तो स्पष्ट हुआ कि लम्बे समय तक तीक्ष्ण, उष्ण अंग्रेजी दवाओं के सेवन से वात और पित्तज का प्रकोप → रस  धातु की दुष्टि →वात के मूल स्थान पक्वाशय में वायु का विशेष प्रकोप→विष्माग्नी →पक्वाशय और बस्ति स्थान की विकृति→मल , मूत्र स्वेदादि शरीर के मलों के निर्गमन में व्यतिक्रम→(परिणामत: यूरिया, क्रिटनीन का शरीर में संचय) →ओजक्षय →वृक्कसन्यास (किडनी फेल्योर)। 
चरकाचार्य बताते हैं कि    प्रकृतिश्चारोग्यम्।। च.वि. ६/१३।।     प्रकृति को ही आरोग्य कहते हैं। इसलिए रोगी में जो अप्राकृतिक अवस्था है उसे निवारण करना होगा। 
अत: वातानुलोमन और दूषित पित्त के निर्हरणार्थ ‘श्यामादिवर्ति’ दी गयी। श्यामादि वर्ती का निर्माण निशोथ पिप्पली, दन्तीमूल, नील बीज, सैन्धव लवण और उड़द की दाल से किया जाता है। यह वातानुलोमन और पित्त का निर्हरण करती है।
इसके बाद वात और पित्त को निराम करने की क्रिया की गयी। इसके लिए षट्पल घृत ५-५ मि.लि. दिया गया। इससे आमपाचन हुआ। यदि ऐसा किये बिना ही बस्तियाँ दे दी जातीं तो ‘आम विष’ धातुओं में लीन हो जाता। 
इसके पश्चात् योगवस्ति और निरूह वस्ति का प्रयोग किया गया। इससे वायु के मूल स्थान पक्वाशय गत वायु निर्हरण होता गया। जिससे रोग की सम्प्राप्ति विघटित होती गयी। 
औषधि व्यवस्था में-
१. स्वर्ण भस्म ५०० मि.ग्रा., पुनर्नवा, मकोय और शरपुंखा तथा भूम्यालकी का वस्त्रपूत चूर्ण ३-३ ग्राम, मुक्तापिष्टी २ ग्राम और कपूर कचरी घनसत्व २ ग्राम, भृंगराज घनसत्व २ ग्राम सभी घोटकर २४ मात्रा। १²३ मात्रा जल या गोदुग्ध से। 
उपर्युक्त औषधि ने इस रोगी में रसायन, ओजवर्धन, त्रिदोष शमन, बलवर्धन, धातुपोषण, वातानुलोमन, छर्दिहरण और पुनर्नवकरण किया। क्योंकि श्रीमती शीतल में इसकी आवश्यकता थी। 
श्री गोपाल तैल का पादाभ्यंग। श्री गोपाल तैल से नित्य पादाभ्यंग, मनावसाद को मिटाता है, उत्साह, बल और ऊर्जा को बढ़ाता है। 
एक सप्ताह की चिकित्सा से अद्भुत परिणाम आये। यूरिया १४१.५ से घटकर १२१.५, क्रिटनीन १०.४ एमजी/डीएल आ गया। 
१६ जुलाई २०१९ को जब पुन: रिपोर्ट करायी गयी तो ब्लड यूरिया नाइट्रोजन २६.०० एमजी/डीएल, क्रिटनीन ४.५ एमजी/डीएल और सोडियम १३१.९ से बढ़कर १३४.८ यानी संतुलन की ओर आ गया। 
रिपोर्ट स्केन है।


तीन सप्ताह तक विधिवत् चिकित्सा कर श्रीमती शीतल जी को डिस्चार्ज कर दिया गया। रोगिणी के परिजन अत्यन्त प्रसन्नता पूर्वक डिस्चार्ज हुयी। आगे घर में यदि रोगिणी के परिजन पथ्य मानसिक स्वस्थता आदि का ध्यान रखेंगे तो उनके स्वस्थ होने में कोई सन्देह नहीं है। विचारणीय बात है कि श्रीमती शीतल जी आयुष चिकित्सा में नहीं आ पातीं तो आज निश्चित रूप से डायलेसिस में होतीं। 
प्रत्येक रोगी की प्रकृति, शारीरिक स्थिति, आहार आदि पृथक्-पृथक् होता है अत: उनमें परिणाम भी भिन्न-भिन्न आते हैं। किन्तु यह निश्चित है कि यदि रोगी रोग के गंभीर होने और शरीर के बिगड़ने तथा गलने के पहले पहुँच जाये तो न जाने कितने रोगियों को डायलेसिस से बचाया जा सकता है। 
पर भारत का दुर्भाग्य है कि रोगी आयुष चिकित्सा में तब आता है जब शरीर भी गल जाता है, रोग बिगड़ जाता है, रोगी की रोग से लड़ने की क्षमता बिल्कुल कम हो जाती है। इसलिए आप सभी से निवेदन है कि ऐसे प्रकरण जन-जन तक पहुँचायें ताकि जागरूकता बढ़े और मानवता का हित हो। यह पुण्य जनक भी है। 
आइये! इस प्रश्न पर विमर्श कर लें कि आखिर वात प्रकोप के कारण किडनी फेल्योर या किडनी में मृदूकता या किडनी का सिकुड़ना वैसे होता है तो ध्यान देने की बात है वायु में रुक्षता, शीतलता, लघुता, विशदता, चंचलता या गत्यात्मकता, अमूर्तता और खरत्व गुण होते हैं और इन गुणों के आधार पर वायु के विकारोत्पादक क्रियायें इस प्रकार होती हैं- स्रंस, भ्रंश, व्यास, संग, भेद, साद, हर्ष, तर्ष, कम्प, वर्त, चाल, तोद, व्यथा, चेष्टा, संकोच, स्तम्भ, सुप्ति, शोष आदि।
जैसा कि भगवान् पुनर्वसु आत्रेय बताते हैं-
सृंशभ्रंश व्याससङ्गभेदसादहर्षतर्ष कम्पवर्तचालतोद व्यथाचेष्टादीनि तथा खर... ... ... शोषशूलसुप्तिसंकोचनस्तम्भखंजतादीनि च वायो: कर्माणितेरान्वित वातविकार ... ... ... ।। 
च.सू. २०/१२।। 
इस प्रकार गुर्दों में सिकुड़न, फैलाव, सूखना आदि विकार वायु विकृति के आधार पर ही होती है यही आयुर्वेद की वैज्ञानिकता है। 



  आयुष ग्राम ट्रस्ट चित्रकूट द्वारा संचालित
           आयुष ग्राम चिकित्सालयम, चित्रकूट 
            मोब.न. 9919527646, 8601209999
             website: www.ayushgram.org
  डॉ मदन गोपाल वाजपेयी                                          आयुर्वेदाचार्य, पी.जी. इन पंचकर्मा (V.M.U.)       एन.डी.,साहित्यायुर्वेदरत्न,विद्यावारिधि, एम.ए.(दर्शन),एम.ए.(संस्कृत )       
          ‌‌‍‌‍'प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव'                              
डॉ परमानन्द वाजपेयी 
                         बी.ए.एम.एस., एम.डी.(अ.)

डॉ अर्चना वाजपेयी                                                                    एम.डी.(कायचिकित्सा) आयुर्वेद 




                                    







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