आयुष मेडिकल एसोसिएसन जिला शाखा-पन्ना (म.प्र.) में आयोजित "आयुर्वेदिक चिकित्सा में सफलता के लिए 10 सूत्र " पर आधारित सेमिनार में डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी द्वारा दिया गया व्याख्यान ।।
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उपस्थिति : डॉ. अशोक श्रीवास्तव ग्वालियर, प्रो. जी.आर. पयासी, डॉ. राम किशोर पाण्डेय सेवानिवृत्त आयुर्वेदिक चिकित्साधिकारी, डॉ. आशीष खरे, डॉ भास्कर द्विवेदी, डॉ रामकिशोर पाठक, डॉ आर. पी. दुवे,डॉ रामबालक सेन, डॉ रविकांत पाण्डेय, डॉ प्रदीप खरे, डॉ राजेन्द्र खरे, डॉ प्रमोद जैन, डॉ अजीत नारायण पाठक, डॉ एस. पी. तिवारी, डॉ राहुल जड़िया सहित जिले के सैकड़ों चिकित्सक उपस्थित रहे ।।
कार्यक्रम आयोजक : डॉ. विजय तिवारी , डॉ आर. के. दुबे ।।
मैं डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी, आज मैं चर्चा कर रहा हूँ आयुर्वेदिक चिकित्सा में सफलता के लिये १० सूत्रों पर ।
जिन सूत्रों को हमने अपने प्रेक्टिस में हमेशा ग्रहण करने का प्रयास किया है ।
हर चिकित्सक की यही प्राथमिक आकांक्षा रहती है कि उसके द्वारा की गयी चिकित्सा में सफलता मिले। ऐसे चिकित्सक को ही वैदिक चिकित्सा विज्ञान में पीयूषपाणि चिकित्सक कहा गया है।
आयुर्वेद चिकित्सा में ही यह उत्कृष्ट विशेषता है कि वह चिकित्सकों को निर्देश देता है कि वे चिकित्सा में ध्यान रखें कि जिस रोग की वह चिकित्सा कर रहे हैं वह मिटे किन्तु दूसरे रोग की उदीरणा न होने पाये । यही सही चिकित्सा है।
(१) प्रयोग: शमयेद् व्याधिं योऽन्यमन्यमुदीरयेत्।
नासो विशुद्ध: शुद्धस्तु शमयेद्यो न कोपयेत् ।।
_च.नि. _८/२३।।_
(२) दुनिया के प्रथम शल्य शास्त्री आचार्य सुश्रुत कहते हैं-
(२) दुनिया के प्रथम शल्य शास्त्री आचार्य सुश्रुत कहते हैं-
या ह्युदीर्णम शमयति नान्यं व्याधि करोति च ।
सा क्रिया, न तु या व्याधिं हरत्यनयमुदिरयेत ।।
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१.* सटीक निदान करें-
चिकित्सा में सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है कि हम रोगों का सटीक निदान करें। जितना सटीक निदान होगा उतनी ही सफल चिकित्सा होगी। भगवान् पुनर्वसु आत्रेय ने इसी बात पर जोर दिया है-
रोगमादौ परीक्षेत ततोऽनन्तरमौषधम्। तत: कर्म भिषकं पश्चाज्ज्ञानपूर्व समाचरेत्।।
स.सू. २०/२४।।
हेतुलिंगौषधज्ञानं स्वस्थातुर परायणम्।।
च.सू. १/२४।।
इसके लिये विस्तार से दर्शन, स्पर्श, प्रश्न को रोगी परीक्षा, रोग परीक्षा का आधार बनाना चाहिए। साथ-साथ नाड़ी, मल, मूत्र, जीभ, शब्द स्पर्श और दृगाकृति परीक्षा का भी आधार लेना चाहिये।
रोगाक्रान्त शरीरस्य स्थान्यान्यष्टौ परीक्षयेत्।
भगवान् पुनर्वसु आत्रेय ने क्लास में अपने शिष्यों को लेक्चर देते समय में निदान के सम्बन्ध में इतना सारगर्भित और सम्पूर्ण सूत्र दिया है कि आयुर्वेद के निदान निर्देशक जितने सूत्र हैं उनको एक पलड़े में रख दें तथा इस सूत्र को एक पलड़े में रख दें तो यह सूत्र भारी पड़ेगा। वह सूत्र है ➖
वृद्धिस्थानक्षयावस्थां दोषाणामुपलक्षयेत।
सुसूक्ष्मामपि च प्राज्ञो देहाग्निबलचेतसाम्।।
सुसूक्ष्मामपि च प्राज्ञो देहाग्निबलचेतसाम्।।
व्याध्यवस्थाविशेषान् हि ज्ञात्वा ज्ञात्वा विचक्षण:।
तस्यां तस्यामवस्थायां चतु:श्रेय: प्रपद्यते।।
च.नि . ८/ ३६ - ३७
अर्थात चिकित्सक को रोग कारक दोषों की बृद्धि, अपने स्थान में साम्यावस्था की स्थिति तथा क्षय अवस्था अर्थात इन अवस्थाओं का ज्ञान करना चाहिए । इसी प्रकार रोगी के शरीर उसकी जठराग्नि और उसके मन की सूक्ष्मातिसूक्ष्म दशा का ज्ञान करना चाहिए । रोग की विभिन्न अवस्थाओं को जानने के पश्चात ही चिकित्सक उन-उन अवस्थाओं में समुचित औषधि प्रयोग करके ही रोगी को स्वास्थ्य दे सकता है अन्यथा नहीं ।
निदान में यदि किसी प्रकार की जल्दबाजी हो जाये या त्रुटि रह जाये तो अपने किये गये निदान पर पुर्नविचार करें और फिर निदान करें।
२. चिकित्सा में पहले क्या-क्या * - * निदान के बाद चिकित्सा की बारी आती है तो चिकित्सा में यह ध्यान रखना है मुख्य व्याधि और उसके उपद्रव। यद्यपि चिकित्सक का उद्देश्य प्रमुख व्याधि को नष्ट करना है किन्तु व्याधि के गुणभूत उपद्रव (Complication) सबसे अधिक कष्टदायक होते हैं। क्योंकि व्याधि के कारण से शरीर कमजोर हो जाता है। जिससे जो भी उपद्रव होते हैं वे बहुत कष्ट देते हैं इसलिये शीघ्रता से पहले उपद्रवों की चिकित्सा करनी चाहिए साथ-साथ मुख्य व्याधि की।
२. चिकित्सा में पहले क्या-क्या * - * निदान के बाद चिकित्सा की बारी आती है तो चिकित्सा में यह ध्यान रखना है मुख्य व्याधि और उसके उपद्रव। यद्यपि चिकित्सक का उद्देश्य प्रमुख व्याधि को नष्ट करना है किन्तु व्याधि के गुणभूत उपद्रव (Complication) सबसे अधिक कष्टदायक होते हैं। क्योंकि व्याधि के कारण से शरीर कमजोर हो जाता है। जिससे जो भी उपद्रव होते हैं वे बहुत कष्ट देते हैं इसलिये शीघ्रता से पहले उपद्रवों की चिकित्सा करनी चाहिए साथ-साथ मुख्य व्याधि की।
इस सम्बंध में आचार्य सूत्र देते हैं कि -
व्याधिपरिक्लिष्ट शरीरत्वात् तस्मादुपद्रवं त्वरमाणोऽभिबाधेत।।
च.चि . २१/४०।।
जैसे हम ज्वर रोगी को देखते हैं ,तो उसके उपद्रव शिर दर्द, बदन दर्द, वमन, वेचैनी,स्वेदावरोध, संताप, जकड़ाहट आदि भी मिलते हैं। जिन उपद्रवों से रोगी को सर्वाधिक कष्ट हो उनकी चिकित्सा की जानी चाहिए।साथ- साथ ज्वर के मूल कारण की भी ।
मानलीजिए हम हार्ट रोगी को देख रहे हैं तो हमें उसके उपद्रव हृच्छल, श्वासकृच्छता, आनाह, आध्मान जो प्रकट हो चुके हैं उन्हें अवश्य और वरीयता के आधार पर प्रशमित करें ।
३. संतुलित चिकित्सा व्यवस्था पत्र लिखें-
व्यवस्था पत्र लिखते समय यह ध्यान रखना है कि-
(क). मुख्य औषधि योग- रोग के मूल कारण को नष्ट करे, दोषों का संतुलन करे तथा धातुओं को साम्यावस्था में लाये।
(ख). *गौण औषध योग- जो रोग से होने वाली सामान्य विकृतियों को दूर करे।
(ग). उचित अनुपान जो क्वाथ, मधु, सामान्य औषधि, जल या और कुछ हो सकता है जो दी गयी औषधि की क्रियाशीलता और शक्ति को बढ़ाये।
(घ). रोग प्रतिरोधक क्षमतावर्धक, धातु पोषक और स्रोतस् विकृति नाशक औषधियाँ भी शामिल करें ।
४. व्यवस्था पत्र वैयक्तिक हो-
चिकित्सा व्यवस्था पत्र लिखते समय रोग निदान में किये गये अपने परिश्रम को याद रखना चाहिए। चूँकि प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति, खान-पान, जीवनशैली और मन:स्थिति अलग-अलग होती है इसलिए एक ही चिकित्सा व्यवस्था पत्र सब पर लागू नहीं हो सकता। अतःचिकित्सा व्यवस्था पत्र वैयक्तिक होना चाहिये ।
इस पर आचार्य चरक ने निर्देश दिया है कि-
इस पर आचार्य चरक ने निर्देश दिया है कि-
योगमासाम् तु यो विद्याद्देशकालोपपादितं ।
पुरुषं पुरुषं वीक्ष्य स ज्ञेयो भिषगुत्तम:।।
(च. सू.) १/१२४
(च. सू.) १/१२४
क्योंकि ग्रीष्मकाल में या वर्षाकाल में उत्पन्न हुये रोगों के लिये दी गयी औषधि शीतऋतु में उत्पन्न उसी प्रकार के रोग में वही औषधि प्रभावशाली नहीं हो पाती। ऐसे ही शीत प्रदेश में रहने वाले के लिए जो औषधि उपयुक्त होगी वही औषधि उष्ण प्रदेश में या जांगल प्रदेश में रहने वाले के लिए उपयोगी न होकर हानिकारक हो सकती है। ऐसे ही कफ प्रकृति के लिये जो दवा उपयुक्त है वह पित्त या वात प्रकृति के लिये नहीं हो सकती।
५. उपयुक्त मात्रा और सेवन काल ➖
चिकित्सा में औषधि की मात्रा का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यदि रोग बल और रोगी बल को ध्यान में रखते हुये उचित मात्रा में औषधि नहीं दी गयी तो आरोग्य लाभ नहीं होगा और लाभ की बजाय हानि ही हो सकती है।
इसके लिए आचार्य चक्रदत्त ने निर्देश दिया है कि-
स्थितिर्नास्त्येव मात्राया: कालमग्निं बलं वय: ... ... ...
इसके लिए आचार्य चक्रदत्त ने निर्देश दिया है कि-
स्थितिर्नास्त्येव मात्राया: कालमग्निं बलं वय: ... ... ...
प्रकृतिं देश दोषोै च दृष्ट्वा मात्राम प्रकल्पयेत ।।..
चक्रदत्त।।
चक्रदत्त।।
आचार्य चरक ने औषधि की मात्रा के सम्बंध में ऐसा सूत्र दिया है जिसका उदाहरण और वैज्ञानिकता पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है-
नाल्पम हन्त्यौषध व्याधिम
यथाऽऽपोल्पा महाऽनलम्।
दोषवच्चातिमात्रंस्यात् सस्यस्यात्युदकं यथा।।
सम्प्रधार्यंबलं
तस्वा दामयस्यौषधस्य च।
नैवाति बहु नात्यल्यं भैषज्यमवचारयेत्।।
चि.चि . *३०/३१३-३१४
अर्थात जिस प्रकार छोटे तालाब का पानी बहुत मात्रा में फैली आग को शांत नहीं कर सकता ठीक उसी प्रकार अल्प मात्रा में दी गई औषधि बढ़ी हुई व्याधि को नष्ट नहीं कर सकती। जिस प्रकार धान के खेत में पानी की अधिकता धान को नष्ट कर देती है ठीक उसी प्रकार से यदि व्याधि का बल कम है और व्याधि बल से अधिक बलवान औषधि रोगी में प्रयोग करा दी गई तो वह रोगी को नष्ट कर देगी।
इसके अलावा औषध का सम्यक् प्रभाव हो इसके लिये दशविध औषधि सेवनकाल पर भी बहुत ध्यान रखना चाहिए।
इस प्रकार प्रभावशाली, सुरक्षित तथा चिकित्सकीय मात्रा में ही औषधियों का प्रयोग करें।
६. औषधियों का उचित संयोग-
चिकित्सा व्यवस्था पत्र लिखते समय यह ध्यान रखें कि औषधियों का उचित संयोग ही हो। क्योंकि अनुचित संयोग से औषधियों का प्रभाव या तो कम हो जाता है या तो बहुत अधिक हो जाता है। जिससे लाभ की जगह हानि होती है। जैसे- अम्लपित्त के रोगी में हम शीतवीर्य, आमपाचक, वातनुलोमक औषधि प्रयोग करते हैं उधर अम्लपित्त रोगी कमरदर्द या जोड़ों के दर्द की भी शिकायत करता है उसे सुनकर हम गुग्गुल या कुपीलु योग भी रोगी को लिख बैठते हैं तो रोगी को लाभ की बजाय हानि ही होगी। उसे अम्लपित्त में राहत तो मिलनी ही नहीं उल्टे नये उपद्रव शुरू हो जायेंगे। इसलिए निदान में अनुबंध वेदनाओं को ध्यान में रखना चाहिए तो उधर औषधि के संयोग-वियोग को भी ध्यान में रखना चाहिए। कई बार किसी रोगी को अम्लयोग लिखते हैं पर साथ में क्षार भी लिख देते हैं कई बार ग्राही और सारक औषध योग एक साथ लिख बैठते हैं।
आचार्य चरक का निर्देश है कि- ➖
अल्पस्यापि महार्घत्वम् प्रभूतस्यापि कर्मताप।
कुर्यात संयोग विश्लेशकाल संस्कार युक्तिभि:।।
च. क. १२/४४
अर्थात अल्पकार्यकारी औषधि को शक्तिशाली बनाने के लिए तथा शक्तिशाली औषधि के प्रभाव को न्यून करने के लिए संयोग, विश्लेष(अलगाव), काल, संस्कार, युक्ति का आधार महत्वपूर्ण होता है।
७. सही औषध कल्पना का चुनाव- ➖
रोग की चिकित्सा में सही औषध कल्पना का ही चुनाव करना चाहिए, क्योंकि आयुर्वेद में एक-एक रोग के लिए अनेकों औषध कल्प वर्णित हैं। अतः किसी औषध के अतिगुणों और प्रभावों मात्र को आत्मसात कर उसका चुनाव नहीं कर लेना चाहिए। सही औषध कल्पना के चुनाव में निम्नांकित बातों को ध्यान में रखना चाहिए-
(क). रोगी की प्रकृति,मानसिक स्थिति, पाचनशक्ति और सत्म्यशक्ति आदि।
(ख). औषध कल्पना विरुद्ध नहीं होनी चाहिए।
८. उचित पथ्य का पालन- ➖
चिकित्सा में पथ्य के महत्व को भुलाया नहीं जा सकता। पथ्य का सीधा-सीधा अर्थ है-
पथ्यो पथोऽनपेतम्। अर्थात् सही रास्ता। जो खान-पान, जीवनशैली रोगी के मार्ग स्रोतस् के अनुकूल हो वही पथ्य कहलाता है। जिस प्रकार औषध के चुनाव में रोग, रोगी की प्रकृति, ऋतु, देश, काल का ध्यान रखा जाता है ठीक उसी प्रकार से पथ्य चुनाव में भी यह ध्यान रखा जाता है। सुनी-सुनायी और घिसे-पिटे पथ्य को स्वीकार कर लेना बुद्धिमानी नहीं होती। जैसे- स्थूलता, पेट के रोगी और शोथ के रोगी के लिए सलाद कदापि उचित नहीं होता किन्तु अंग्रेजी चिकित्सक बिना सोचे-समझे स्थूलता के रोगियों को सलाद खिलाते हैं जो निश्चित रूप हानिकर है। अत: इस पर बहुत सूक्ष्मता से विचार करना चाहिए। ऐसे ही अनाह (कब्ज) के रोगी के लिए करेला (तिक्त रस), चाय-कॉफी (कषाय रस), वायु को बढ़ाकर आनाह (कब्ज) को और बढ़ा देते हैं। ऐसे ही दलिया जो पचने में भारी होता है उसे पेट के रोगियों के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता है।
इस प्रकार बिना पथ्य विवेचना के रोगी को उचित लाभ दे पाना संभव ही नहीं है।
९. पूरी चिकित्सा करें और जल्दी-जल्दी चिकित्सा न बदलें-
चिकित्सा का समय रोग, रोगी की अवस्था के अनुसार होता है इसलिये चिकित्सक को चाहिए कि रोगी को उसके रोग की दशा बताकर पूरे समय तक चिकित्सा लेने के लिए तैयार करें तथा उसकी निरन्तर कौंसलिंग करते रहें। यदि रोगी बीच में ही चिकित्सा छोड़ देगा तो चिकित्सक को उचित यश नहीं मिलेगा।
इसी प्रकार चिकित्सक को यह ध्यान रखना चाहिए कि रोग कृच्छ्रसाध्य या याप्य है तो उसे जल्दी-जल्दी औषधियाँ या चिकित्सा नहीं बदलनी चाहिए। क्योंकि कृच्छ्रसाध्यतम् रोगों में हितकर औषधि क्रियायें भी तुरन्त लाभ नहीं दिखातीं।
आचार्य सुश्रुत ने बताया है कि -
गुणालाभेऽपि सपदि यदि सैव क्रिया हिता।
कर्तव्यैव तदा व्याधि: कृच्छ्रसाध्यतमो यदि।।
सुश्रुत सूत्र ३५/४९।।
१०. औषधियाँ धीरे-धीरे बन्द करें और पथ्य पालन कराते रहें-
किसी भी कृच्छ्रसाध्य रोग में अचानक औषधियाँ बन्द कर देने और जीवनशैली गड़बड़ कर देने से रोग की वापसी फिर होने लगती है। अत: कृच्छ्रसाध्य रोग के ठीक हो जाने पर भी औषध और उसकी मात्रा धीरे-धीरे कम करते हुये बन्द करें। अन्यथा रोग दुबारा हो जायेगा। यदि रोगी याप्य श्रेणी का है तो स्पष्ट बता देना चाहिए कि इसमें रोगी को यावज्जीवन औषधियाँ चलानी पड़ेंगी अन्यथा रोग के बढ़ने और उपद्रव होने की सम्भावना बनी रहेगी।
इन १० सूत्रों पर अमल करते हुये आप अपनी चिकित्सा को सफलतम बना सकते हैं।
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- डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी
बी.ए.एम.एस. (आयुर्वेदाचार्य), पी.जी. इन पंचकर्मा (वी.एम.यू.) एन.डी., साहित्यायुर्वेदरत्न, विद्या वारिधि, एम.ए. (दर्शन), एम.ए. (संस्कृत), एल.एल.बी.।
प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव
सूरजकुण्ड रोड, पुरवा तरौंहा मार्ग, चित्रकूटधाम (उ.प्र.) २१०२०५
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