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आचार्य डॉ. मदन गोपाल वाजपेयी |
प्रत्येक प्राणी में जीवनीय शक्ति का संवाहन करने वाली एक शक्ति होती है जिसे प्राणशक्ति कहते हैं। यद्यपि प्राण शक्ति को धारण करने की क्षमता प्रत्येक जीव में अलग अलग होती है परंतु मानव में उसे विकसित करने की बुद्धि प्रकृति ने अवश्य दी है। भारत में प्राणशक्ति/जीवनीय शक्ति पर शोधपरक अध्ययन भारत के आध्यात्मिक धरातल पर हुये तो उसी समय चरक, सुश्रुत जैसे भारत के महान् चिकित्सा वैज्ञानिकों ने भी प्राणशक्ति/ जीवनीय शक्ति और आयु की सीमा पर अपना अध्ययन किया तथा दुनिया के सामने अपना स्पष्ट लेक्चर प्रस्तुत किया कि :
भूतानामायुर्युक्तिमपेक्षते।
दैवे पुरुषकारे च स्थितं ह्यस्य बलाबलम्।।
चरक विमान 3/30।।
प्राणियों की आयु युक्ति पर निर्भर है, आयु के चिरस्थायी, अल्पकालिक
होने में पूर्वकर्म और वर्तमान कर्म की सबलता (अनुकूलता), निर्बलता या प्रतिकूलता कारण होते है। जब
पूर्वकर्म और वर्तमान कर्म श्रेष्ठ होते हैं तो आयु, लंबी सुखमय और नियत होती है जब दोनों कर्म कमजोर होते हैं तो आयु
अल्प, दुःखमय तथा अनियत होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों ने भी जब आयु और जीवनीय अवयवों पर शोध किया तो
पाया कि हार्ट 300 साल तक और किडनी 200 साल तक खराब नहीं
होती यदि हम शरीर और इन अवयवों के साथ बेरहमी न करें तथा इन्हें स्वस्थ रखने, प्राण शक्ति, जीवनीय शक्ति को
बढाने का निष्ठा से उपाय करते जाएं। अब प्रश्न बनता है कि जीवन या आयु की सही परिभाषा क्या है, तो जब तक मन, आत्मा, शरीर, इन्द्रियों का सम्यक्
योग (combination) बना रहता है तब तक की ही आयु की स्थिति बनी रहती है, यदि एक ने साथ छोड़ा
तो आयु की स्थिति डांवाडोल हो जाती है।
चरक बताते हैं कि:
सत्वमात्मा शरीरं च
त्रयमेतत्रिदण्डवत्।।
लोकस्तिष्ठति संयोगात्तत्र
सर्वं प्रतिष्ठितम्।।
चरक सूत्र 1/46।।
इस जीवात्मा की स्थिति के लिए इन्द्रियों सहित मन , आत्मा और शरीर ये तीनों तिपाई के समान है जैसे
किसी तिपाई के स्थायित्व के लिये तीन पाए होना आवश्यक है वैसे ही जीवात्मा के लिये
इन तीनों(मन, आत्मा,शरीर)
का शक्तियुक्त रहना आवश्यक है। इन
सूत्रों/उद्धरणों से स्पष्ट हो रहा है कि प्राण शक्ति की रक्षा,
वृद्धि,
सबल,
सक्षम
बनाने के लिए इन्द्रिय, मन,
आत्मा को
शक्तिशाली बनाना होगा और शक्तिशाली बनाये रखने के मार्ग में चलना होगा। आत्मशक्ति
का वर्धन होता है प्रकृति के साहचर्य और आत्मविद्या के मार्ग में चलने से।
ब्रह्ममुहूर्त में जागरण, स्नान,
सूर्यार्घ्य,
मंत्र जप,
प्राणायाम,
आत्म
तत्व का ध्यान, सम्यक् आहार,
आत्मा को
उठाने वाले कार्य, स्वयं को गिराने वाले कार्यों
से दूर, ऋतु,
आयु,
देश आदि
के अनुसार खान-पान रहन सहन का पालन।
भगवान गीता में भी बताते हैं कि इस शरीर से
इंद्रियों की शक्ति अधिक है, इन्द्रियों
से मानसिक शक्ति श्रेष्ठ है, मन
से बुद्धि/विवेक और बुद्धि से आत्मशक्ति श्रेष्ठ है। यही कारण है हमारे परमपुरुष
भगवान् श्रीराम और कृष्ण भी आत्मशक्ति को बढ़ाने के लिए आत्मशक्ति के अनुकूल कर्म
करते थे। श्रीमद्वाल्मीकि जी लिखते हैं कि गुरुदेव वशिष्ठ के विदा करने के पश्चात्
श्री राम ने मन को संयमित किया फिर स्नान करके अपनी पत्नी सीता जी के साथ बैठकर
परमात्मा की शरण ली।
गते पुरोहिते राम: स्नातो
नियतमानस:।
सह पत्न्या विशालाक्ष्या
नारायणमुपागमत॥
श्रीमदवाल्मीकिरामायण 2/6/1॥
श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण में
भगवान् श्री राम के सन्ध्योपासना और गुरुजी द्वारा प्रदत्त गायत्री मंत्र जप के
अनेकों प्रसंग उद्धृत हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के रासलीला प्रसंग को तो कथावाचक बड़े
मजे से सुनाते हैं पर यह प्रसंग भी भारतीय समाज को बताने योग्य है कि भगवान् कृष्ण
माखनचोर, रासरचइया नहीं हैं उनकी दिनचर्या आत्मशक्ति, प्राणशक्तिवर्धक थी। वे नित्य ब्रह्ममुहूर्त
में जागकर अपने प्रतिदिन आत्मस्वरूप का ध्यान करते और धोती पहनकर सन्ध्यावन्दन
करते, मौन होकर गुरु जी द्वारा प्रदत्त ब्रह्म मंत्र
का जप करते।
अथाप्लुतोम्भस्यमले यथाविधि,
क्रिया कलापम परिधाय वाससी।
चकार संध्योपगमादि सत्तमो,
हुतानालो ब्रह्म जजाप वाग्यत:॥
श्रीमद्भागवत म0 पु0 10/70/6।।
अब कोई कह दे कि आज के परिप्रेक्ष्य में इन
नियमों का पालन सम्भव नहीं। तो यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यदि इन नियमों के
अनुसार चलना सम्भव नहीं तो प्राणशक्ति का वर्धन सम्भव नहीं। सोचिये कि गेंहू की
फसल गर्मी में बोई जाए तो कितनी और कैसी होगी? धान
की दिसम्बर में लगाई जाए तो कैसी होगी? महर्षि चरक काल में जो प्रकृति के नियम
विरुद्ध चलते थे उन्हें सदातुर (स्थायी रोगी) कह दिया गया है। चाहे वह श्रोत्रिय
हो, वेश्या हो, व्यापारी
हो या सरकारी नौकरशाह हो (चरक सिद्धि 11/28-29।।)
प्राणशक्तिवर्धक नियमों के सम्बन्ध में आधुनिक
मनोवैज्ञानिक एक स्वर से कहने लगे हैं कि इस समय चल रहे तनाव, चिंता, ईर्ष्या, भौतिकवाद, खुशी
के अभाव के कारण मनोदैहिक रोग बढ़ रहे हैं, जो मानव की प्राणशक्ति को कमजोर कर व्यक्ति को
शारीरिक रोगी बना रहे हैं। जिससे मानव अल्पायु हो रहा है उसकी प्राणशक्ति जो
आत्मशक्ति है कमजोर हो रही है। जबकि सत्य बात तो है यह कि दुःख चिंता, रोग, संकट
के विरुद्ध संघर्ष करने की पूर्ण क्षमता मानव में निहित आत्मशक्ति /प्राणशक्ति को
मिली हुई है। कोई मानव उसका उपयोग ही न करे, न
उसे समझे ,न जाने तो दोष किसका है। अब ध्यान, योग और जप
पर भारतीय तथा विदेशी वैज्ञानिकों के अनुसंधान आ गए हैं। परोपकार ,सेवा, ईश्वर
शरणागति से आयु बढ़ती है इस पर शोध आ चुके हैं तथा आते रहते हैं। ये शोध तो अब आ रहे है
किंतु भारत के प्राचीन चिकित्सा वैज्ञानिक चरक ने बार बार आचार रसायन के रूप में, सद्वृत पालन के रूप
में, ज्वर, कुष्ठादि चिकित्सा प्रकरण में, चतुर्विध प्रमाणों के क्रम (सूत्र 11/33।।)में
लिखा है। सद्वृत्त के पालन चरककालीन भारत में किस प्रकार लागू था, ध्यान देने योग्य है –
नास्नातो,
नोपहतवासा,
नजपित्वा नाहुत्वा देवताभ्यो,
नानिरूप्य,
पितृभ्यो नादत्वा,
गुरुभ्यो नातिथिभ्यो...नाप्रक्षालितपाणि
पाद वदनो ..न प्रतिकूलोपहितमन्नमाददीत।। न सतो न गुरून् परिवदेत्
नाशुचिरभिचारकर्मचैत्यपूज्यपूजाध्यय-नभिनिर्वर्तयेत्।। !!चरक सूत्र 8।।
अर्थात न बिना स्नान किये, न स्वच्छ पवित्र वस्त्रधारण किये बिना, जप किये बिना, हवन किये बिना, ,पितरों को अन्नदान किए बिना, गुरुजनों (घर के बड़ों)को भोजन कराएं बिना, अतिथियों और अपने आश्रितों को भोजन कराएं बिना, भोजन न करे, बिना हाथ पाँव धोए, बिना मुंह साफ किये भोजन न करे। सज्जन पुरुषों
और घर के माता पिता बड़ों, गुरु
जनों की निंदा न करे न सुने। जो बड़ों/गुरुजनों की निंदा सुनता और करता है तो उससे जो पहले
संतुष्टि की अनुभूति होती है, वह
संतुष्टि नहीं बल्कि उसके शरीर में निंदा सुनकर या करके एक मादक हार्मोन्स का
स्राव होता है उसमें वह झूमता है और इसी का आदी होता जाता है पर उससे उसकी
प्राणशक्ति रोज ब रोज कमजोर होती जाती हैऔर जब उसका पाप का घड़ा भर जाता है फिर वह
फूटता है तो फिर उसके एक एक आसूं के चार चार बहते हैं रास्ता नहीं ढूढे मिलता, सारा कैरियर चौपट हो जाता है चाहे उसने जितनी
बड़ी योग्यता/उपाधि ले रखी हो। चरक लिखते हैं कि अपवित्र अवस्था
में मंदिर, पूज्यजनों का स्पर्श न करे, न ही शास्त्र अध्ययन करे। ये
सत्कर्म निश्चित रूप से शरीर, मन का कलुष/ दोष दूर करते हैं यह तथ्य वैज्ञानिकों
द्वारा भी अनुसन्धानित हो चुका है। ज्यों ज्यों शरीर और मन का कलुष /आवरण
हटता जाता है ,त्यों त्यों मानव की प्राणशक्ति
बढ़ती जाती है, घटा हुआ ओज बढ़ने लगता है। क्योंकि शरीर में 13 प्राण है उनमें से मन की भी
प्राण संज्ञा है, प्राण शक्ति वह शक्ति जो कोरोना क्या बड़े से बड़े रोगों
को पराजित कर मानव को आरोग्य बनाये रखती
है।
इनके शिष्यों, छात्र, छात्राओं की लम्बी सूची है । आपकी चिकित्सा व्यवस्था को देश के आयुष चिकित्सक अनुसरण करते हैं ।
आयुष ग्राम चिकित्सालय:, चित्रकूट

प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव और आयुष ग्राम मासिक
पूर्व उपा. भारतीय चिकित्सा परिषद
उत्तर प्रदेश शासन
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