९ अगस्त २०१९ को कौशाम्बी (उ.प्र.) बड़ी धन्नी (मूरतगंज) से एक गुर्दा (किडनी) रोगी श्री कौशेन अहमद को व्हील चेयर में लादकर आयुष ग्राम (ट्रस्ट) चिकित्सालयम् की ओपीडी में लाये। उनका रजिस्ट्रेशन KA०८/२३ पर हुआ फिर ओपीडी में लाया गया। वजन ८७ कि.ग्रा., उम्र ३८ वर्ष, रक्तचाप १००/८० था। रोगी को इलाहाबाद (प्रयागराज) से पीजीआई लखनऊ के लिए रिफर कर कर दिया गया था।
प्रयागराज (इलाहाबाद) के आशा हास्पिटल की रिपोर्ट देखी गयी तो हेमोग्लोबिन ११.० जी/डीएल, ईएसआर ३२/एचआर, प्लेटलेट काउण्ट ०.५१ लाख, यूरिया १९८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन ८.२ एमजी/डीएल, सोडियम १३४ और सीरम बिल्र्युबिन ५.१ एमजी/डीएल तथा मूत्र में एल्ब्यूमिन ४ + में था।
आयुष ग्राम (ट्रस्ट) चिकित्सालयम्, चित्रकूट द्वारा जाँच करायी गयी तो इस प्रकार रिपोर्ट आयी- यूरिया २०२.८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन १०.८ एमजी/डीएल, सीरम बिल्र्युबिन ५.२, यूरिक एसिड ९.०, सोडियम फॉस्फोरस ७.२ और मूत्र में प्रोटीन ४+ था।
रोगी की केसहिस्ट्री ली गयी तो बताया गया कि वह पेशे से ड्राइवर है।
☑ २५ दिन पहले कौशाम्बी के एक अस्पताल में इनका हाइड्रोसील का ऑपरेशन हुआ।
☑ दूसरे दिन इन्हें उल्टी होने लगी। इतनी कमजोरी आ गयी कि इनसे अपने आप से खड़े नहीं होते बन पा रहा था।
☑ तब इन्हें फिर उसी अस्पताल ले जाया गया, वहाँ २.३ दिन दवा हुयी पर कोई आराम नहीं मिला तो फिर दूसरे अस्पताल में दिखाया, वहाँ भी २४ घण्टा भर्ती रहा, लेकिन आराम नहीं मिला।
☑ अब इन्हें कौशाम्बी से आशा हास्पिटल, प्रयागराज (इलाहाबाद) के लिए रिफर कर दिया गया, वहाँ जाँच हुयी तो यूरिया १९८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन ८.२ एमजी/डीएल आया, अब उन्होंने लखनऊ पीजीआई रिफर कर दिया और कहा डायलेसिस होगी।
डायलेसिस का नाम सुनते ही घर वालों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी। तभी उनको आयुष ग्राम (ट्रस्ट), चित्रकूट की जानकारी हुयी, क्योंकि उनके चाचा यहाँ किडनी का इलाज करा रहे थे।
रोगी श्री कौशेन अहमद का अब आयुर्वेदीय परीक्षण प्रारम्भ किया गया। यहाँ के डॉक्टरों ने रोगी के सम्प्राप्ति घटकों का अध्ययन प्रारम्भ किया। रोगी का चेहरा और आँखें रक्ताभ थी, व्हील चेयर में बैठे-बैठे उसकी साँस फूल रही थी, हृल्लास, भ्रम, सिरदर्द, उल्टी, ज्वर और पेशाब की समस्या की बात कर रहा था और कराह रहा था।
श्री कौशेन अहमद का जब निदान किया गया तो यह पाया गया कि जिस रोग में अंग्रेजी डॉक्टर डायलेसिस में डाल रहे थे वह तो उदावर्त्त रोग था।
दुनिया के महान् चिकित्साचार्य भगवान् पुनर्वसु आत्रेय ‘ उपजाति ’ छन्दबद्ध सूत्र लिखते हुये बताते हैं-
कषायतिक्तोषणरूक्षभोज्यै: सन्धारणाभोजन मैथुनैश्च।
पक्वाशये कुप्यति चेदपान: स्रोतांस्यधोगानि बली स रुद्ध्वा।
करोति विण्मारुत मूत्रसंङ्गं क्रमादुदावत्र्तमत: सुघोरम्।।
च.चि. २६/५-६।।
अर्थात्, जब व्यक्ति कषैले, तिक्त, कटु और रूक्ष (रूखे) पदार्थों का अधिक सेवन करता है, मल-मूत्रादि वेगों को रोकता है, शरीर को उचित पोषण नहीं देता। अति मैथुन करता है तो अपानवायु प्रकुपित होकर अधोगामी होकर मूत्रवह, पूरीषवह स्रोतों को रोकती है फिर यही अपानवायु, मूत्र और मल की प्रवृत्ति में अवरोध उत्पन्न कर उदावर्त्त रोग को उत्पन्न करती है, जो भयंकर रोग होता है।
आगे आचार्य बताते हैं कि उदावर्त्त रोग उत्पन्न होने पर हृदय, कुक्षि, पेट, पीठ और पसलियों में रह-रहकर पीड़ा होती है। पेट में वायु बनती है, जी मिचलाता है, गुदा में कैंची काटने जैसा कष्ट, अपच, मूत्राशय में सूजन, पेट साफ न होना, मल की गाँठ बन जाना, वायु का ऊपर की ओर चढ़ना, कठिनाई के साथ और देर से सूखे मल का निकलना, शरीर में खरता, रूखापन और शीतलता की अनुभूति होना जैसे लक्षण आते हैं।
चूँकि रोगी में चेहरे और आँखों का लाल होना, साँस फूलना, हृल्लास, उल्टी, पेशाब में कठिनाई, मानसिक दुर्बलता, अरुचि, बुखार आदि उपद्रव थे तो यह सारे उपद्रव उदावत्र्त में भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बताया ही है-
ततश्च रोगा ज्वरमूत्रकृच्छ्रप्रवाहिकाहृद्ग्रहणीप्रदोषा:।
वम्यान्ध्यबाधिर्यशिरोऽभिताप वातोदराष्ठीलमनोविकारा:।।
तृष्णास्रपित्तारुचिगुल्मकासश्वासप्रतिश्यायार्दितपाश्र्वरोगा:।
अन्ये च रोगा बहवोऽनिलोत्था भवन्त्युदावर्त कृता: सुघोरा:।।
च.चि. २६/८-९।।
उक्त सूत्र में ऋषि के ‘उपजाति’ छन्दबद्ध उक्त सूत्रों के शब्द ध्यान देने योग्य हैं, उन्होंने उपर्युक्त सूत्रों में दो बार ‘सुधोर’ शब्द प्रयोग किया है। जिसका अर्थ होता है महाकष्टप्रद । आज के समय में भी यही जो अधिकांश ‘किडनी फेल्योर’ का कारण बनता है वह कितना ‘घोर’ है इस पर बहुत लिखने की जरूरत नहीं है। पर हाँ! यह अवश्य विचार करने योग्य है कि हमारे भारत के प्राचीन चिकित्साचार्यों को कितना गंभीर ज्ञान था।
श्री कौशेन अहमद के रोग की सम्प्राप्ति इस प्रकार निर्मित हो रही थी-
हाइड्रोसील के ऑपरेशन में रुक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण औषधियों का प्रयोग ➡ अपानवायु का पक्वाशय में प्रकोप ➡ रसधातु की दुष्टि ➡ पुरीषवह, मूत्रवह स्रोतों में ‘संग’ प्रकार की विकृति ➡ अपानवायु का विलोम होना ➡ शारीरिक मलों, दोषों तथा दूषित वायु (अपान) के प्राकृतिक रूप से बाहर होने में अवरोध ➡ उदावत्र्त ➡ श्वासकृछ्रता, भ्रम, ज्वर, मानसिक अव्यवस्था, रक्तपित्त, श्वास, शिर दर्द, वमन, प्यास आदि कष्टदायक उपद्रवभूत रोग।
आयुष ग्राम चिकित्सालयम् के अन्तरंग विभाग में रोगी को भर्ती किया गया। रोगी और उसके साथी तैयार थे ही। तत्काल चिकित्सा प्रारम्भ की गयी क्योंकि रोगी जीवन-मौत के लक्षणों से जूझ रहा था।
संहिताकार का ‘सुघोरम्’ शब्द यहाँ के चिकित्सकों और नर्स, फार्मासिस्टों को बार-बार रोग की भयंकरता की याद दिला रहा था।
आयुष ग्राम चिकित्सालयम् में प्रशिक्षित उपाधि पत्र धारक अनुभवी, अनुचिकित्सीय स्टॉफ है जो ऐसे रोगों में संस्थान के डॉक्टरों का निर्देश पाते ही बहुत ही तन्मयता से लग जाता है।
चिकित्सा में- रोगी को सर्वप्रथम- श्यामादिवर्ति का प्रयोग कराया गया।
आचार्य चरक निर्देश देते हैं-
तं तैलशीतज्वरनाशनाक्तं स्वेदैर्यथोक्तं प्रविलीनदोषम्।
उपाचरेद् वर्तिनिरूहवस्तिस्नेहैर्विरेकैरनुलोमनान्नै:।।
च.चि. २६/११।।
इसके पश्चात् अभ्यंग स्वेदन करके सुकुमार क्वाथ और आराग्वधादि क्वाथ के मिश्रण से निरूहण किया जाने लगा। इसके अलावा शिरोवस्ति, शिरोधारा, वृक्कस्वेदन भी किया जाता रहा।
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा कि-
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
‘‘उपाचरेद् वर्तिनिरूहवस्तिस्नेहैर्विरेकैरनुलोमनान्नै:।।’’
यानी वर्ति, निरूह, स्नेहवस्ति, विरेचन तो दें पर भोजन जो दें वह वातानुलोमक हो। यहाँ पर शास्त्रकर्ता ने ‘‘अनुलोमनान्नै:।’’ शब्द लिखकर यह सूत्र दिया है कि औषध, अन्य और विहार जो भी रोगी को दीजिये वह ‘वातानुलोमक’ हो। क्योंकि इस रोगी में वायु का जो भी विलोम हुआ है वह रूक्ष, उष्ण (कटु), तीक्ष्ण, धातु क्षयकारक, धातु पोषक, ओजनाशक औषधियों और जीवनशैली से हुआ है, तो आहार औषधि और विहार हमने देना है स्निग्ध, शीत (मधुर), धातु पोषक, ओजवर्धक, तभी इस रोगी का वायु अनुलोम होगा और वायु जैसे-जैसे अनुलोम होता जायेगा वैसे-वैसे रसधातु दोषरहित होता जायेगा, पुरीषवह, मूत्रवह स्रोतस् की विकृति दूर होती जायेगी फिर शारीरिक मल, दोष (यूरिया, क्रिटनीन आदि) और दूषित वायु प्राकृतिक रूप से बाहर निकलने लगेंगे। रोगी निरोग होता जायेगा । इतनी छोटी सी क्रिया करनी है, आयुष चिकित्सकों को कहाँ जरूरत है डायलेसिस की।
तो आहार में- मखान्नगोक्षीरपाक नाश्ता व भोजन में लगातार १५ दिन तक। इसके अलावा कुछ नहीं दिया गया। आयुष ग्राम (ट्रस्ट), चित्रकूट में गीर नस्ल की कई गायें हैं जिनसे रोगियों के लिए उत्तम गोदुग्ध पर्याप्त मिल जाता है जो रोग निवारण में अद्भुत सहायता करता है। मखान्न के गुणों के बारे में हम ‘चिकित्सा पल्लव’ के पूर्व अंकों में लिख चुके हैं।
यह आहार अपने स्निग्ध, बल्य, शीत गुणों से तिक्त, कषाय और उष्ण (कटु) तथा धातुक्षय कारणों से कुपित हुयी ‘वात’ का शमन करता है तथा ओजवर्धन भी करता है।
शोधन, शमन तथा औषध, अन्न विहारात्मक चिकित्सा से एक सप्ताह बाद जब खून जाँच करायी तो-
हेमोग्लोबिन ११.० जीएम% से बढ़कर १२.० जीएम%
यूरिया २०२.८ एमजी/डीएल से घटकर १६४. एमजी/डीएल
क्रिटनीन १०.८ एमजी/डीएल से घटकर ६.४ एमजी/डीएल
सीरम बिल्र्यूबिन ५.२ से घटकर २.२ एमजी/डीएल
फास्फोरस ७.२ से घटकर ५.७
पेशाब में प्रोटीन ४ + से घटकर ‘ टे्रसेज ’ हो गया।
यह चमत्कार केवल और केवल आयुष चिकित्सा से ही संभव था। यद्यपि रोगी की मानसिक स्थिति अभी ५०% ही ठीक हुयी थी। क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि रोग और पानी का वेग एक समान है। जैसे पानी की बाढ़ जब आती है तो बड़े वेग से आती है किन्तु जब यह बाढ़ उतरती है तो धीरे-धीरे उतरती है और उतरने के बाद कीचड़, मलबा छोड़ जाती है।
चिकित्सा क्रम जारी रहा, दूसरे सप्ताह २३.०८.२०१९ को जब जाँच करायी तो यूरिया ८४.२, क्रिटनीन ३.२, फास्फोरस ५.५ और बिल्र्युबिन १.२ हो गया। रिपोर्ट देखकर रोगी और उनके परिजनों में अपार खुशी थी।
२३ अगस्त २०१९ को रोगी को डिस्चार्ज कर दिया गया तथा लगातार १ वर्ष चिकित्सीय निगरानी में रहने और समय-समय पर जाँच कराते रहने का निर्देश दिया। जाते समय रोगी के परिजनों ने अपनी खुशी का जिस प्रकार इजहार किया वह खुशी इस लेख के प्रारम्भ में अंकित है।
लेख के प्रारम्भ में जाने के लिए यहाँ क्लिक करें : https://www.ayushgramtrust.com/2019/08/blog-post_65.html
हम में भी ऐसी सफलताओं और खुशियों को आप सभी तक पहुँचाने का उत्साह रहता है
क्योंकि ज्ञान को छिपाने वाले मानव को श्रीमद्भागवतकार ने ‘ज्ञानखल’ (पापी) कहा है-
‘भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती।।’
श्रीमद्भागवत पुराण १०/२/१९।।
हमारा भी आप सभी से अनुरोध है कि आप भी ऐसे ज्ञान को सर्वत्र शेयर करें। विचार करें कि ऐसे रोगी को दुनिया का कोई भी अंग्रेजी डॉक्टर या हास्पिटल इतनी जल्दी रोगमुक्त कर सकता था और डायलेसिस से बचा सकता था? दूसरी बात यह भी सोचें क्या कि कोई भी अंग्रेजी हास्पिटल इस रोगी को बिना ‘डायलेसिस’ शान्ति दे सकता था? आपके उत्तर और टिप्पणियों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
भिषजां साधाुवृत्तानां भद्रागम शालिनाम् अभ्यस्त कर्मणां भद्रं भद्राभिलाषिणाम्।।
अ.हृ. ४०/७७।।
वाग्भट कहते हैं कि सदाचारी, सत्कर्मपरायण आयुर्वेद चिकित्सकों का भला हो, शास्त्र के गूढ़ रहस्यों को जानने वाले धन्वन्तरि पुत्रों (आयुर्वेद चिकित्सकों) का भला हो, जिन्होंने गुरुचरणों में बैठकर शास्त्र का अभ्यास किया है उन चिकित्सकों का भला हो तथा संसार का भला चाहने वाले आयुर्वेदज्ञों का भला हो।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
डॉ अर्चना वाजपेयी एम.डी.(कायचिकित्सा) आयुर्वेद
प्रयागराज (इलाहाबाद) के आशा हास्पिटल की रिपोर्ट देखी गयी तो हेमोग्लोबिन ११.० जी/डीएल, ईएसआर ३२/एचआर, प्लेटलेट काउण्ट ०.५१ लाख, यूरिया १९८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन ८.२ एमजी/डीएल, सोडियम १३४ और सीरम बिल्र्युबिन ५.१ एमजी/डीएल तथा मूत्र में एल्ब्यूमिन ४ + में था।
आयुष ग्राम (ट्रस्ट) चिकित्सालयम्, चित्रकूट द्वारा जाँच करायी गयी तो इस प्रकार रिपोर्ट आयी- यूरिया २०२.८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन १०.८ एमजी/डीएल, सीरम बिल्र्युबिन ५.२, यूरिक एसिड ९.०, सोडियम फॉस्फोरस ७.२ और मूत्र में प्रोटीन ४+ था।
रोगी की केसहिस्ट्री ली गयी तो बताया गया कि वह पेशे से ड्राइवर है।
☑ २५ दिन पहले कौशाम्बी के एक अस्पताल में इनका हाइड्रोसील का ऑपरेशन हुआ।
☑ दूसरे दिन इन्हें उल्टी होने लगी। इतनी कमजोरी आ गयी कि इनसे अपने आप से खड़े नहीं होते बन पा रहा था।
☑ तब इन्हें फिर उसी अस्पताल ले जाया गया, वहाँ २.३ दिन दवा हुयी पर कोई आराम नहीं मिला तो फिर दूसरे अस्पताल में दिखाया, वहाँ भी २४ घण्टा भर्ती रहा, लेकिन आराम नहीं मिला।
☑ अब इन्हें कौशाम्बी से आशा हास्पिटल, प्रयागराज (इलाहाबाद) के लिए रिफर कर दिया गया, वहाँ जाँच हुयी तो यूरिया १९८ एमजी/डीएल, क्रिटनीन ८.२ एमजी/डीएल आया, अब उन्होंने लखनऊ पीजीआई रिफर कर दिया और कहा डायलेसिस होगी।
डायलेसिस का नाम सुनते ही घर वालों के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गयी। तभी उनको आयुष ग्राम (ट्रस्ट), चित्रकूट की जानकारी हुयी, क्योंकि उनके चाचा यहाँ किडनी का इलाज करा रहे थे।
रोगी श्री कौशेन अहमद का अब आयुर्वेदीय परीक्षण प्रारम्भ किया गया। यहाँ के डॉक्टरों ने रोगी के सम्प्राप्ति घटकों का अध्ययन प्रारम्भ किया। रोगी का चेहरा और आँखें रक्ताभ थी, व्हील चेयर में बैठे-बैठे उसकी साँस फूल रही थी, हृल्लास, भ्रम, सिरदर्द, उल्टी, ज्वर और पेशाब की समस्या की बात कर रहा था और कराह रहा था।
श्री कौशेन अहमद का जब निदान किया गया तो यह पाया गया कि जिस रोग में अंग्रेजी डॉक्टर डायलेसिस में डाल रहे थे वह तो उदावर्त्त रोग था।
दुनिया के महान् चिकित्साचार्य भगवान् पुनर्वसु आत्रेय ‘ उपजाति ’ छन्दबद्ध सूत्र लिखते हुये बताते हैं-
कषायतिक्तोषणरूक्षभोज्यै: सन्धारणाभोजन मैथुनैश्च।
पक्वाशये कुप्यति चेदपान: स्रोतांस्यधोगानि बली स रुद्ध्वा।
करोति विण्मारुत मूत्रसंङ्गं क्रमादुदावत्र्तमत: सुघोरम्।।
च.चि. २६/५-६।।
अर्थात्, जब व्यक्ति कषैले, तिक्त, कटु और रूक्ष (रूखे) पदार्थों का अधिक सेवन करता है, मल-मूत्रादि वेगों को रोकता है, शरीर को उचित पोषण नहीं देता। अति मैथुन करता है तो अपानवायु प्रकुपित होकर अधोगामी होकर मूत्रवह, पूरीषवह स्रोतों को रोकती है फिर यही अपानवायु, मूत्र और मल की प्रवृत्ति में अवरोध उत्पन्न कर उदावर्त्त रोग को उत्पन्न करती है, जो भयंकर रोग होता है।
आगे आचार्य बताते हैं कि उदावर्त्त रोग उत्पन्न होने पर हृदय, कुक्षि, पेट, पीठ और पसलियों में रह-रहकर पीड़ा होती है। पेट में वायु बनती है, जी मिचलाता है, गुदा में कैंची काटने जैसा कष्ट, अपच, मूत्राशय में सूजन, पेट साफ न होना, मल की गाँठ बन जाना, वायु का ऊपर की ओर चढ़ना, कठिनाई के साथ और देर से सूखे मल का निकलना, शरीर में खरता, रूखापन और शीतलता की अनुभूति होना जैसे लक्षण आते हैं।
चूँकि रोगी में चेहरे और आँखों का लाल होना, साँस फूलना, हृल्लास, उल्टी, पेशाब में कठिनाई, मानसिक दुर्बलता, अरुचि, बुखार आदि उपद्रव थे तो यह सारे उपद्रव उदावत्र्त में भारत के चिकित्सा वैज्ञानिकों ने बताया ही है-
ततश्च रोगा ज्वरमूत्रकृच्छ्रप्रवाहिकाहृद्ग्रहणीप्रदोषा:।
वम्यान्ध्यबाधिर्यशिरोऽभिताप वातोदराष्ठीलमनोविकारा:।।
तृष्णास्रपित्तारुचिगुल्मकासश्वासप्रतिश्यायार्दितपाश्र्वरोगा:।
अन्ये च रोगा बहवोऽनिलोत्था भवन्त्युदावर्त कृता: सुघोरा:।।
च.चि. २६/८-९।।
उक्त सूत्र में ऋषि के ‘उपजाति’ छन्दबद्ध उक्त सूत्रों के शब्द ध्यान देने योग्य हैं, उन्होंने उपर्युक्त सूत्रों में दो बार ‘सुधोर’ शब्द प्रयोग किया है। जिसका अर्थ होता है महाकष्टप्रद । आज के समय में भी यही जो अधिकांश ‘किडनी फेल्योर’ का कारण बनता है वह कितना ‘घोर’ है इस पर बहुत लिखने की जरूरत नहीं है। पर हाँ! यह अवश्य विचार करने योग्य है कि हमारे भारत के प्राचीन चिकित्साचार्यों को कितना गंभीर ज्ञान था।
श्री कौशेन अहमद के रोग की सम्प्राप्ति इस प्रकार निर्मित हो रही थी-
हाइड्रोसील के ऑपरेशन में रुक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण औषधियों का प्रयोग ➡ अपानवायु का पक्वाशय में प्रकोप ➡ रसधातु की दुष्टि ➡ पुरीषवह, मूत्रवह स्रोतों में ‘संग’ प्रकार की विकृति ➡ अपानवायु का विलोम होना ➡ शारीरिक मलों, दोषों तथा दूषित वायु (अपान) के प्राकृतिक रूप से बाहर होने में अवरोध ➡ उदावत्र्त ➡ श्वासकृछ्रता, भ्रम, ज्वर, मानसिक अव्यवस्था, रक्तपित्त, श्वास, शिर दर्द, वमन, प्यास आदि कष्टदायक उपद्रवभूत रोग।
आयुष ग्राम चिकित्सालयम् के अन्तरंग विभाग में रोगी को भर्ती किया गया। रोगी और उसके साथी तैयार थे ही। तत्काल चिकित्सा प्रारम्भ की गयी क्योंकि रोगी जीवन-मौत के लक्षणों से जूझ रहा था।
संहिताकार का ‘सुघोरम्’ शब्द यहाँ के चिकित्सकों और नर्स, फार्मासिस्टों को बार-बार रोग की भयंकरता की याद दिला रहा था।
आयुष ग्राम चिकित्सालयम् में प्रशिक्षित उपाधि पत्र धारक अनुभवी, अनुचिकित्सीय स्टॉफ है जो ऐसे रोगों में संस्थान के डॉक्टरों का निर्देश पाते ही बहुत ही तन्मयता से लग जाता है।
चिकित्सा में- रोगी को सर्वप्रथम- श्यामादिवर्ति का प्रयोग कराया गया।
आचार्य चरक निर्देश देते हैं-
तं तैलशीतज्वरनाशनाक्तं स्वेदैर्यथोक्तं प्रविलीनदोषम्।
उपाचरेद् वर्तिनिरूहवस्तिस्नेहैर्विरेकैरनुलोमनान्नै:।।
च.चि. २६/११।।
इसके पश्चात् अभ्यंग स्वेदन करके सुकुमार क्वाथ और आराग्वधादि क्वाथ के मिश्रण से निरूहण किया जाने लगा। इसके अलावा शिरोवस्ति, शिरोधारा, वृक्कस्वेदन भी किया जाता रहा।
जैसा कि आपने ऊपर पढ़ा कि-
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
‘‘उपाचरेद् वर्तिनिरूहवस्तिस्नेहैर्विरेकैरनुलोमनान्नै:।।’’
यानी वर्ति, निरूह, स्नेहवस्ति, विरेचन तो दें पर भोजन जो दें वह वातानुलोमक हो। यहाँ पर शास्त्रकर्ता ने ‘‘अनुलोमनान्नै:।’’ शब्द लिखकर यह सूत्र दिया है कि औषध, अन्य और विहार जो भी रोगी को दीजिये वह ‘वातानुलोमक’ हो। क्योंकि इस रोगी में वायु का जो भी विलोम हुआ है वह रूक्ष, उष्ण (कटु), तीक्ष्ण, धातु क्षयकारक, धातु पोषक, ओजनाशक औषधियों और जीवनशैली से हुआ है, तो आहार औषधि और विहार हमने देना है स्निग्ध, शीत (मधुर), धातु पोषक, ओजवर्धक, तभी इस रोगी का वायु अनुलोम होगा और वायु जैसे-जैसे अनुलोम होता जायेगा वैसे-वैसे रसधातु दोषरहित होता जायेगा, पुरीषवह, मूत्रवह स्रोतस् की विकृति दूर होती जायेगी फिर शारीरिक मल, दोष (यूरिया, क्रिटनीन आदि) और दूषित वायु प्राकृतिक रूप से बाहर निकलने लगेंगे। रोगी निरोग होता जायेगा । इतनी छोटी सी क्रिया करनी है, आयुष चिकित्सकों को कहाँ जरूरत है डायलेसिस की।
तो आहार में- मखान्नगोक्षीरपाक नाश्ता व भोजन में लगातार १५ दिन तक। इसके अलावा कुछ नहीं दिया गया। आयुष ग्राम (ट्रस्ट), चित्रकूट में गीर नस्ल की कई गायें हैं जिनसे रोगियों के लिए उत्तम गोदुग्ध पर्याप्त मिल जाता है जो रोग निवारण में अद्भुत सहायता करता है। मखान्न के गुणों के बारे में हम ‘चिकित्सा पल्लव’ के पूर्व अंकों में लिख चुके हैं।
यह आहार अपने स्निग्ध, बल्य, शीत गुणों से तिक्त, कषाय और उष्ण (कटु) तथा धातुक्षय कारणों से कुपित हुयी ‘वात’ का शमन करता है तथा ओजवर्धन भी करता है।
शोधन, शमन तथा औषध, अन्न विहारात्मक चिकित्सा से एक सप्ताह बाद जब खून जाँच करायी तो-
हेमोग्लोबिन ११.० जीएम% से बढ़कर १२.० जीएम%
यूरिया २०२.८ एमजी/डीएल से घटकर १६४. एमजी/डीएल
क्रिटनीन १०.८ एमजी/डीएल से घटकर ६.४ एमजी/डीएल
सीरम बिल्र्यूबिन ५.२ से घटकर २.२ एमजी/डीएल
फास्फोरस ७.२ से घटकर ५.७
पेशाब में प्रोटीन ४ + से घटकर ‘ टे्रसेज ’ हो गया।
यह चमत्कार केवल और केवल आयुष चिकित्सा से ही संभव था। यद्यपि रोगी की मानसिक स्थिति अभी ५०% ही ठीक हुयी थी। क्योंकि आचार्यों ने कहा है कि रोग और पानी का वेग एक समान है। जैसे पानी की बाढ़ जब आती है तो बड़े वेग से आती है किन्तु जब यह बाढ़ उतरती है तो धीरे-धीरे उतरती है और उतरने के बाद कीचड़, मलबा छोड़ जाती है।
चिकित्सा क्रम जारी रहा, दूसरे सप्ताह २३.०८.२०१९ को जब जाँच करायी तो यूरिया ८४.२, क्रिटनीन ३.२, फास्फोरस ५.५ और बिल्र्युबिन १.२ हो गया। रिपोर्ट देखकर रोगी और उनके परिजनों में अपार खुशी थी।
२३ अगस्त २०१९ को रोगी को डिस्चार्ज कर दिया गया तथा लगातार १ वर्ष चिकित्सीय निगरानी में रहने और समय-समय पर जाँच कराते रहने का निर्देश दिया। जाते समय रोगी के परिजनों ने अपनी खुशी का जिस प्रकार इजहार किया वह खुशी इस लेख के प्रारम्भ में अंकित है।
लेख के प्रारम्भ में जाने के लिए यहाँ क्लिक करें : https://www.ayushgramtrust.com/2019/08/blog-post_65.html
हम में भी ऐसी सफलताओं और खुशियों को आप सभी तक पहुँचाने का उत्साह रहता है
क्योंकि ज्ञान को छिपाने वाले मानव को श्रीमद्भागवतकार ने ‘ज्ञानखल’ (पापी) कहा है-
‘भोजेन्द्रगेहेऽग्निशिखेव रुद्धा सरस्वती ज्ञानखले यथा सती।।’
श्रीमद्भागवत पुराण १०/२/१९।।
हमारा भी आप सभी से अनुरोध है कि आप भी ऐसे ज्ञान को सर्वत्र शेयर करें। विचार करें कि ऐसे रोगी को दुनिया का कोई भी अंग्रेजी डॉक्टर या हास्पिटल इतनी जल्दी रोगमुक्त कर सकता था और डायलेसिस से बचा सकता था? दूसरी बात यह भी सोचें क्या कि कोई भी अंग्रेजी हास्पिटल इस रोगी को बिना ‘डायलेसिस’ शान्ति दे सकता था? आपके उत्तर और टिप्पणियों की हमें प्रतीक्षा रहेगी।
भिषजां साधाुवृत्तानां भद्रागम शालिनाम् अभ्यस्त कर्मणां भद्रं भद्राभिलाषिणाम्।।
अ.हृ. ४०/७७।।
वाग्भट कहते हैं कि सदाचारी, सत्कर्मपरायण आयुर्वेद चिकित्सकों का भला हो, शास्त्र के गूढ़ रहस्यों को जानने वाले धन्वन्तरि पुत्रों (आयुर्वेद चिकित्सकों) का भला हो, जिन्होंने गुरुचरणों में बैठकर शास्त्र का अभ्यास किया है उन चिकित्सकों का भला हो तथा संसार का भला चाहने वाले आयुर्वेदज्ञों का भला हो।
➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖➖
मोब.न. 9919527646, 8601209999
website: www.ayushgram.org
डॉ मदन गोपाल वाजपेयी आयुर्वेदाचार्य, पी.जी. इन पंचकर्मा (V.M.U.) एन.डी.,साहित्यायुर्वेदरत्न,विद्यावारिधि, एम.ए.(दर्शन),एम.ए.(संस्कृत )
'प्रधान सम्पादक चिकित्सा पल्लव'
डॉ परमानन्द वाजपेयी
बी.ए.एम.एस., एम.डी.(अ.)
डॉ अर्चना वाजपेयी एम.डी.(कायचिकित्सा) आयुर्वेद
1 टिप्पणियाँ
Gajb
जवाब देंहटाएं