वैज्ञानिकता से पूर्ण है आयुर्वेदीय दिनचर्या अपनाइये!



- डॉ. रंजीता नहारिया,  व्याख्याता/संहिता विभाग, - डॉ. आनन्द प्रकाश वर्मा, रीडर, संहिता विभाग


               ‘‘दिने दिने चर्या दिनचर्या’’

                प्रतिदिन किया जाने वाला आहार, विहार एवं चेष्टा जो कि अपने लिए हितकर हो उसे दिनचर्या कहते हैं।

                दिनचर्या शब्द में दिन एवं चर्या दो शब्द हैं। यहाँ दिन का अर्थ है- प्रतिदिन या रोज एवं चर्या का अर्थ है- आहार-विहार एवं आचरण विधि। कारणीय व्यवहार (घूमना-फिरना, हिलना-डुलना आदि) चर्या कहलाती है।

                मनुष्य द्वारा दोनों लोकों (परलोक एवं इहलोक) के लिए हितकारी आहार, विहार एवं आचरण/व्यवहार का प्रतिदिन प्रयत्नशील होकर पालन करना ही दिनचर्या कहलाता है। इसलिए प्रतिदिन करने योग्य चर्या को ही दिनचर्या कहते हैं।

दिनचर्या का उद्देश्य एवं महत्व- दिनचर्या का पालन आयुर्वेद के प्रथम प्रयोजन ‘‘स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणम्’’ की पूर्ति करता है। अत: दिनचर्या को उद्देश्य भी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर की रक्षा करना ही है।

                बुद्धिमान् पुरुष सुबह प्रात:काल उठकर स्वास्थ्य एवं आरोग्य की इच्छा रखते हुए जिन नियमों का पालन करते हैं वे सब दिनचर्या के अन्तर्गत आते हैं।

                दिनचर्या के अन्तर्गत सुबह जागने से लेकर मध्यान्ह, संध्याकालीन एवं रात्रिकालीन कर्तव्य/व्यवहार/विधि समाहित होती है।

                इस प्रकार दिनचर्या का उचित पालन करने से शरीर की शुद्धि होती है एवं शरीर में दोषों का प्रकोप नहीं हो पाता। इस प्रकार स्वास्थ्य रक्षण हेतु एवं शरीर को निरोगी बनाए रखने के लिए दिनचर्या का पालन अत्यन्त आवश्यक है।

दिनचर्या के अन्तर्गत आने वाले कर्तव्य या व्यवहार-

१. ब्रह्म मुहुर्त में जागरण- स्वास्थ्य एवं आयुष की रक्षा हेतु मनुष्य को ब्रह्म मुहूर्त में जागना चाहिए।

 यह मुहूर्त निद्रा त्याग कर शरीर, चिन्तन के लिए आदर्श माना जाता है।

यह दो शब्दों से मिलकर बना हैं- ब्रह्म एवं मुहूर्त।

                ब्रह्म का अर्थ ज्ञान से है और ज्ञान अध्ययन से प्राप्त होता है, अत: ज्ञान प्राप्ति के लिए (अध्ययन हेतु एवं ईश्वर स्मरण) योग्य मुहूर्त (काल) ब्रह्म मुहूर्त है।

¬ मुहूर्त का अर्थ है ४८ मिनट। रात्रि का चर्तुदश मुहूर्त (आखिरी मुहूर्त से पहले वाला मुहूर्त) ब्रह्म मुहूर्त है। मतलब सूर्योदय से डेढ़ घण्टे पहले वाला समय।

                आयुर्वेद ने ब्राह्म मुहूर्त में जागने और उसमें शरीर, आध्यात्म और अध्ययन के लिए सक्रिय होने पर जोर दिया। आज आधुनिक वैज्ञानिकों ने अपनी खोज में इस तथ्य में पूर्ण वैज्ञानिकता पायी, पढ़ें वैज्ञानिकों के शब्दों में-

Probable Mode of Action :- Nascent oxygen which is liberated in the early morning will easily and readily mix up with hemoglobin to form oxy-hemoglobin which reach and nourish the remote tissues rapidly.

- Release of serotonin hormone keeps individual active and alert.

- Minimum pollution (Noise, Air, Water and environment) in the early morning enhances the concentration process.

२. उष: पान- उष: पान उष: = का तात्पर्यब्रह्म मुहूर्त एवं पान मतलब द्रव्य का सेवन। ब्रह्म मुहूर्त में जागकर पिये जाने वाले उष्ण जल को जलपान कहते हैं। जो व्यक्ति उषा काल में जल को पीता है वह रोग तथा जरावस्था से मुक्त होकर सौ वर्ष से अधिक जीता है।

३. दन्त धावन- कटु-तिक्त एवं कषाय रस प्रधान दातौन से प्रात:काल एवं सायंकाल दंतधावन करें। दंतधावन चूर्ण- त्रिफला, त्रिकटु, त्रिजातक, तेजबल का चूर्ण शहद एवं तैल में मिलाकर मंजन करें।

४. जिह्वा निर्लेखन- सोने/चाँदी/वृक्ष की मृदु शाखओं की बनी जिह्वा निर्लेखनी द्वारा मुखशोधन करना चाहिए। इससे मुख की विरसता, दुर्गन्ध एवं रोगों का नाश होकर मुख में स्वच्छता एवं लघुता आती है।

                आजकल बहुत ही दूषित प्रणाली चल गयी कि स्त्री-पुरुष, युवक-युवतियाँ जिह्वानिर्लेखन नहीं करते जिससे विषाक्त पदार्थ पेट में चले जाते हैं और तमाम रोगोत्पत्ति होती है।

५. अंजन कर्म- स्वर्ण/रौप्य/ताम्र/लोहादि किसी भी धातु की शलाका (पतली सलाई) से नेत्रों में ज्योतिवर्धक एवं हितकारी सौवीराँजन का नित्य अंजन (काजल/सूरमा) लगाना चाहिए।

६. नस्य कर्म- औषधि अथवा उससे सिद्ध स्नेह जब नासिका छिद्र द्वारा नाक में डाला जाता है तो उसे नस्य कर्म कहते हैं। नस्य के लिए अणु तेल का विधान है, अणु तैल सिर के प्रत्येक अणु में नासा के द्वारा पहुँच जाता है, क्योंकि नासिका को शिर का द्वार कहा जाता है। अणु तैल की २ बूँदें प्रत्येक नासा द्वार में डालते हैं, इसे नित्य प्रयोग करना चाहिए। इससे नेत्र, कर्ण, नासिका व शिर के रोग नहीं होते हैं।

७. अभ्यंग विधा- शरीर पर नित्य तैल से अभ्यंग करना चाहिए। सर्वांग शरीर पर तेल लगाकर सारे शरीर का (मसाज) मर्दन करना चाहिए। अभ्यंग का व्यवहारिक नाम मालिश करना है।

त्वचा पर नित्य अभ्यंग (मालिश) करने से त्वचा चिकनी, कांतियुक्त एवं दृढ़ (मजबूत) हो जाती है। स्पर्शन इन्द्रिय में वायु की प्रधानता है तथा स्पर्श नेन्द्रिय त्वचा के आश्रित रहती है। अभ्यंग त्वचा के लिए अत्यन्त हितकारी है। अत: अभ्यंग नित्य करना चाहिए।

८. व्यायाम- ऐसा शारीरिक कर्म जिससे शरीर में थकावट उत्पन्न हो उसे व्यायाम कहते हैं।

लाभ-   १.  लघुता- Lightness of the body

                २. कर्मसामथ्र्य-  Improves  work efficiency

                ३. शरीर का घन एवं विभक्त होना- Compactness of the body and proportionate musculature. 

       मनुष्य को अपनी शारीरिक क्षमता का आधी मात्रा व्यायाम करना चाहिए अर्थात् थकावट होने से पहले ही व्यायाम रोक देना चाहिए।

९. स्नान- प्रात:काल सभी को शरीर को स्वच्छ बनाए रखने के लिए स्नान करना चाहिए

                उष्ण जल के द्वारा शरीर के नीचे के भाग का स्नान करना बलवर्धक है। उष्णोदक से सिर का स्नान करना केश एवं नेत्र के बल का नाशक है अर्थात् इनके लिए हानिकारक है। इसलिए केश व नेत्र के बल को बनाए रखने के लिए मनुष्य को शीतल जल से शिर प्रदेश का स्नान करना चाहिए। नित्य स्नान से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। साथ ही शरीर में ऊर्जा (उत्साह) आयुष्य एवं बल की प्राप्ति होती है।

१०. भोजन विधान- पूर्वकृत आहार के जीर्ण होने पर हितकर एवं पथ्य, उचित भोजन मात्रापूर्वक करना चाहिए।

-              शासकीय अष्टांग आयुर्वेद महाविद्यालय,

                इन्दौर (म.प्र.)

-              पं.शिवशक्तिलाल विद्यालय,

        शर्मा आयुर्वेद, रतलाम (म.प्र.)

                                                                   
                          
       आचार्य डॉ. मदनगोपाल वाजपेयी!

चिकित्सा पल्लव मार्च 2022 






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